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Home » 50 साल पहले वियतनाम से कैसे हारा अमेरिका, तब भारत में क्‍या था माहौल ?

दुनिया

50 साल पहले वियतनाम से कैसे हारा अमेरिका, तब भारत में क्‍या था माहौल ?

Arun Pandey
Last updated: May 1, 2025 12:37 am
Arun Pandey
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Vietnam War
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द लेंस डेस्‍क। (Vietnam War) आज से 50 साल पहले 30 अप्रैल 1975 की तारीख इतिहास में दर्ज है, जब गुरिल्ला लड़ाकों वियतकॉन्ग ने अमेरिकी सेना को शिकस्‍त दी। वियतनाम युद्ध (1955-1975) 20वीं सदी के सबसे बड़े और विवादित युद्धों में से एक है। आइए, समझते हैं कि यह युद्ध क्यों हुआ और अमेरिका जैसे ताकतवर देश की हार कैसे हुई, साथ ही साइगॉन के पतन के बाद वियतनाम का उदय कैसे हुआ?

खबर में खास
Vietnam War : भारत में लगे नारे, “तेरा नाम-मेरा नाम, वियतनाम-वियतनाम”जब हेलीकॉप्टर से अमेरिकी सेना को भागना पड़ा

वियतनाम युद्ध की जड़ें शीत युद्ध में थीं। उस समय दुनिया दो खेमों में बंटी थी। एक तरफ अमेरिका और पश्चिमी देश, जो पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहे थे, दूसरी तरफ सोवियत संघ व चीन, जो साम्यवाद (कम्युनिज्म) का समर्थन कर रहे थे। वियतनाम भी इस वैचारिक जंग का हिस्सा बन गया।

1954 में वियतनाम दो हिस्सों में बंट गया। उत्तरी वियतनाम, जो साम्यवादी था और हो ची मिन्ह के नेतृत्व में था और दक्षिणी वियतनाम, जो अमेरिका समर्थित गैर-साम्यवादी सरकार के अधीन था। उत्तरी वियतनाम पूरे देश को साम्यवाद के तहत एक करना चाहता था, जबकि अमेरिका इसे रोकना चाहता था। अमेरिका को डर था कि अगर वियतनाम साम्यवादी हो गया, तो दक्षिण-पूर्व एशिया के बाकी देश भी साम्यवाद की चपेट में आ जाएंगे। इसे “डोमिनो थ्योरी” कहा गया।

इसी डर से अमेरिका ने दक्षिण वियतनाम की सरकार को सैन्य और आर्थिक मदद देनी शुरू की। लेकिन उत्तरी वियतनाम के गुरिल्ला लड़ाके जिन्‍हें वियतकॉन्ग कहा जाता था, वह लगातार दक्षिण में हमले कर रहे थे। धीरे-धीरे यह तनाव पूर्ण युद्ध में बदल गया।

Vietnam War : भारत में लगे नारे, “तेरा नाम-मेरा नाम, वियतनाम-वियतनाम”

वियतनाम युद्ध भले ही हजारों किलोमीटर दूर लड़ा जा रहा था, लेकिन इसकी गूंज भारत की गलियों, विश्वविद्यालयों और जनसभाओं में साफ सुनाई देती थी। “तेरा नाम, मेरा नाम, वियतनाम-वियतनाम”, यह नारा 1960 और 70 के दशक में भारतीय छात्र आंदोलनों और वामपंथी संगठनों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गया था। उस समय भारत में युवा वर्ग खासकर विश्वविद्यालयों के छात्र अमेरिका द्वारा वियतनाम में किए जा रहे सैन्य आक्रमणों के खिलाफ खुलकर विरोध कर रहे थे।

1968 में दिल्ली विश्वविद्यालय और बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों ने विशाल प्रदर्शन किए। इन प्रदर्शनों में “तेरा नाम, मेरा नाम, वियतनाम-वियतनाम” नारे गूंज उठे। यहां तक कि दीवारों पर वियतनामी नेता हो ची मिन्ह की तस्वीरें और उनके समर्थन में नारे चित्रित किए गए। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी अमेरिका द्वारा वियतनाम पर किए जा रहे हमलों की आलोचना की थी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में भी इस युद्ध को समाप्त करने की मांग उठाई थी।

जब हेलीकॉप्टर से अमेरिकी सेना को भागना पड़ा

ह्यूबर्ट वैन एस/फेयर यूज की इस तस्वीर में देखा जा सकता है कि सीआईए का एक सदस्य 22 जिया लॉन्ग स्ट्रीट की एक इमारत की छत पर मौजूद लोगों को हेलीकॉप्टर में चढ़ने में मदद कर रहा है। यह जगह अमेरिकी दूतावास से लगभग आधा मील की दूरी पर थी।

1960 के दशक में अमेरिका ने वियतनाम में अपनी सेना भेजनी शुरू की। 1965 तक लाखों अमेरिकी सैनिक वियतनाम पहुंच चुके थे। अमेरिका के पास आधुनिक हथियार, हेलिकॉप्टर और बमवर्षक विमान थे, लेकिन फिर भी वह जीत नहीं सका। वियतकॉन्ग और उत्तरी वियतनाम की सेना जंगलों में छिपकर गुरिल्ला युद्ध लड़ती थी। वे रात में हमला करते, जाल बिछाते और गायब हो जाते। जानकार बताते हैं कि अमेरिकी सेना को ऐसी लड़ाई का कोई अनुभव नहीं था।

वियतकॉन्ग को स्थानीय लोगों का समर्थन था। ग्रामीण लोग उनकी मदद करते थे क्‍योंकि दक्षिण वियतनामी सरकार भ्रष्ट और अलोकप्रिय थी। वियतनाम युद्ध अमेरिका में भी विवाद का कारण बन गया। हजारों अमेरिकी सैनिक मर रहे थे और टीवी पर युद्ध की भयानक तस्वीरें दिख रही थीं। अमेरिकी नागरिकों ने सड़कों पर युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किए।

1968 में वियतकॉन्ग ने अमेरिकी ठिकानों पर बड़े हमले किए, जिसे टेट ऑफेंसिव कहा जाता है। हालांकि अमेरिका ने इन हमलों को रोक दिया, लेकिन इसने दुनिया को दिखाया कि वियतनाम की सेना कमजोर नहीं है। लंबे समय तक युद्ध चलने और भारी नुकसान के बाद अमेरिका ने 1973 में पेरिस शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए और अपनी सेना वापस बुला ली।

29 अप्रैल, 1975 को वियतनाम युद्ध के दौरान एक ऐतिहासिक क्षण आया जब उत्तरी वियतनामी सैनिकों ने साइगॉन के तान सोन नुट एयर बेस पर बमबारी की। इस हमले के बाद अमेरिका के राजदूत ग्राहम मार्टिन ने तुरंत साइगॉन को खाली करने का आदेश दे दिया। निकासी की शुरुआत का संकेत देने के लिए सशस्त्र बल रेडियो ने बार-बार “व्हाइट क्रिसमस” गाना बजाया, ताकि साइगॉन में मौजूद अमेरिकी नागरिक और अधिकारी सतर्क हो जाएं। समुद्री रास्ते बंद हो चुके थे और हवाई जहाजों के लिए साइगॉन में उतरना संभव नहीं था। ऐसे में लोगों को निकालने का एकमात्र तरीका हेलीकॉप्टर ही बचा। हेलीकॉप्टरों की मदद से हजारों लोगों को छतों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया।

Vietnam War : साइगॉन का पतन और वियतनाम का उदय

अमेरिकी सेना के जाने के बाद दक्षिण वियतनाम की सरकार कमजोर पड़ गई। उत्तरी वियतनाम ने 1975 में बड़ा हमला शुरू किया। 30 अप्रैल, 1975 को उत्तरी वियतनाम की सेना ने दक्षिण की राजधानी साइगॉन पर कब्जा कर लिया। यह दिन इतिहास में “साइगॉन का पतन” के नाम से जाना जाता है। साइगॉन के पतन के बाद वियतनाम एकजुट हो गया और 1976 में आधिकारिक तौर पर “वियतनाम समाजवादी गणराज्य” बन गया। युद्ध के बाद वियतनाम को भारी नुकसान से उबरना पड़ा। लाखों लोग मारे गए, गांव तबाह हो गए, और अर्थव्यवस्था चरमरा गई। लेकिन वियतनाम ने धीरे-धीरे प्रगति की। आज वियतनाम एक तेजी से विकसित हो रहा देश है, जो अपनी संस्कृति, पर्यटन और अर्थव्यवस्था के लिए जाना जाता है। वियतनाम युद्ध ने दुनिया को दिखाया कि ताकतवर हथियारों से ही युद्ध नहीं जीता जाता। स्थानीय लोगों का समर्थन, सही रणनीति और इच्छाशक्ति भी उतनी ही जरूरी है।

नौ साल की बच्‍ची तस्‍वीर : युद्ध, दर्द और भय

वियतनाम युद्ध के दौरान  9 साल की बच्‍ची किम फुक तस्‍वीर, जो आज कनाडा में रहती हैं और शांति कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं।

Vietnam War (1955-1975) के दौरान एक ऐतिहासिक तस्वीर की वजह से विश्व भर में चर्चित हुई। यह तस्‍वीर थी बच्‍ची किम फुक की जिसे “नेपलम गर्ल” के नाम से भी जाना जाता है। 8 जून 1972 को जब किम फुक मात्र 9 साल की थीं तब दक्षिण वियतनामी वायुसेना ने उनके गांव ट्रांग बैंग पर गलती से नेपलम बम गिरा दिया। इस हमले में किम बुरी तरह जल गईं, उनके कपड़े जल गए और वे दर्द से चीखती हुई नग्न अवस्था में सड़क पर भागीं।

इस दृश्य को फोटोग्राफर निक उत (Nick Ut) ने अपने कैमरे में कैद किया। उनकी यह तस्वीर, जिसमें किम दर्द और भय के साथ भागती दिख रही हैं, वियतनाम युद्ध की क्रूरता और नागरिकों पर इसके भयावह प्रभाव का प्रतीक बन गई। तस्वीर ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा और युद्ध-विरोधी भावनाओं के समर्थन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसे 1973 में पुलित्जर पुरस्कार भी मिला।

आज किम फुक कनाडा में रहती हैं और एक शांति कार्यकर्ता के रूप में काम करती हैं। उन्होंने “किम फाउंडेशन इंटरनेशनल” की स्थापना की, जो युद्ध से प्रभावित बच्चों की मदद करता है। वे संयुक्त राष्ट्र की सद्भावना राजदूत भी रह चुकी हैं। किम ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वे उस तस्वीर से शुरुआत में नफरत करती थीं, क्योंकि यह उनकी निजता का उल्लंघन थी, लेकिन बाद में उन्होंने इसे शांति और क्षमा का संदेश फैलाने के लिए एक मंच के रूप में स्वीकार किया।

यह भी देखें : देश के खुफिया चीफ छत्‍तीसगढ़ में क्‍यों?

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