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Home » जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में लेफ्ट गठबंधन जीतने में कामयाब, लेकिन क्या बदल रहा है कैंपस का सियासी मिजाज?

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जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में लेफ्ट गठबंधन जीतने में कामयाब, लेकिन क्या बदल रहा है कैंपस का सियासी मिजाज?

Awesh Tiwari
Last updated: April 28, 2025 2:38 pm
Awesh Tiwari
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JNU student union elections
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नई दिल्ली। जेएनयू छात्रसंघ चुनाव (JNU student union elections) के परिणाम सोमवार देर रात घोषित कर दिए गए। अध्यक्ष पद पर आइसा के नीतीश कुमार जीते हैं । मनीषा (डीएसएफ) ने उपाध्यक्ष पद और मुन्तेहा फातिमा (डीएसएफ) ने महासचिव का पद हासिल किया है।

हालांकि एबीवीपी के वैभव मीना ने ज्वाइंट सेक्रेट्री का पद जीतकर सेंट्रल पैनल में एबीवीपी की एक दशक बाद वापसी कराई है। जो सबसे चौंकाने वाले बात है वह यह है कि जेएनयू से संबंधित स्कूलों और संकायों के 44 में से 23 पद एबीवीपी ने जीते हैं। सवाल खड़ा होता है कि क्या इन परिणामों से यह मान लेना चाहिए कि जेएनयू में एबीवीपी की राजनीति रंग ला रही है?

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव : अब तक हाशिए पर रही है एबीवीपी

देश की राजनीति में भाजपा का पदार्पण और जेएनयू की राजनीति में एबीवीपी का पदार्पण एक साथ हुआ था। 6 अप्रैल 1980 को भाजपा अस्तित्व में आई और उसी साल एबीवीपी ने वामपंथी राजनीति के गढ़ जेएनयू में प्रवेश किया। यह वह दौर था जब समान शिक्षा सस्ती शिक्षा का मुद्दा बुलंद था। पिछले 45 वर्षों में जेएनयू स्टूडेंट यूनियन में एबीवीपी ने पूरी ताकत लगाकर हर चुनाव लड़ा लेकिन फिर भी उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

हालांकि बीच में उनका अध्यक्ष भी रहा एकाध बार सेंट्रल पैनल की महत्वपूर्ण सीटों पर उनका कब्जा रहा लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद एबीवीपी खुद को पुरजोर तरीके से स्थापित नहीं कर पाई। छात्र यूनियन के पूर्व अध्यक्ष मोहित पांडेय कहते हैं कि यह परिणाम अप्रत्याशित है। स्कूल आफ सोशल साइंस में काउंसलर के दो पद जीतना और यूनिवर्सिटी में काउंसलर के 23 पद हासिल करना यह बताता है कि एबीवीपी कैंपस में मजबूत हो रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आइसा  को छोड़कर  अन्य छात्र इकाइयों में संगठन का अभाव है।

एबीवीपी भी कैंपस में सांगठनिक तौर पर मजबूत हो रही है। वाम छात्र संगठन अब भी पुराने ढर्रे की राजनीति कर रहे हैं, यह भी एक बड़ी वजह है। मोहित कहते हैं कि कुछ बातें चौंकाती भी हैं। कैंपस के बाहर साथ खड़ा होने वाला एनएसयूआई कैंपस में चुनाव के मौके पर अलग खड़ा हो जाता है। 

2015 में भी बना था एबीवीपी का ज्वाइंट सेक्रेट्री

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव : इसके पहले साल 2015 के छात्र संघ चुनाव में जब कन्हैया कुमार छात्रसंघ के अध्यक्ष बने थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने संयुक्त सचिव पद पर जीत हासिल की थी। इस बार भी एबीवीपी को ज्वाइंट सेक्रेट्री का पद मिला है।

2015 में एबीवीपी के सौरभ शर्मा ने आइसा के प्रत्याशी को 28 वोटों के अंतर से हरा कर यूनिवर्सिटी के सेंट्रल पैनल में 14 साल बाद वापसी की थी। काबिल-ए-गौर है कि इस बार विद्यार्थी परिषद के वैभव मीना को संयुक्त सचिव के पद पर 1,518 वोट मिले, वहीं उनके प्रतिद्वंद्वी आइसा के नरेश कुमार को 1,433 वोट मिले। अध्यक्ष उपाध्यक्ष और महासचिव पर लेफ्ट भले जीता हो लेकिन एबीवीपी के वोट भी सम्मानजनक हैं।

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव : जब बना एबीवीपी का अध्यक्ष

एक वक्त ऐसा रहा है कि जेएनयू में विद्यार्थी परिषद का बोलबाला आज से भी ज्यादा था। 2000 में एबीवीपी के संदीप महापात्रा अध्यक्ष चुने गए थे और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। यह एबीवीपी की बढ़ती साख ही है कि तमाम वामपंथी धड़े अब एक साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं। ज्यादातर छात्र मानते हैं कि यह एबीवीपी का प्रभाव है कि कैंपस में अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जगह राष्ट्रीय मुद्दे और छात्रों की समस्याओं से जुड़े मुद्दे चुनावों में ज्यादा हावी रहते हैं।

गिर रही जातीय दीवारें

हाल के दिनों में एक बड़ी और बेहतर चीज यह भी हुई है छात्रों के बीच जातीय दीवारें गिरी हैं। इस स्थिति का फायदा भी एबीवीपी को मिल रहा है। लेकिन यह सच है कि संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले प्रोफेसरों की उच्च पदों पर नियुक्ति, बजट में कटौती कैंपस पर लगातार हमले लेफ्ट को राजनैतिक तौर पर आगे रख रहे। देश की फिजा के साथ साथ जेएनयू बदल रहा है।

यह भी देखें : भारत का पाकिस्तान पर सख्त रुख, पाकिस्तानी यूट्यूब चैनल और न्यूज़ चैनल बैन

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