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Home » गुर्मा की खुली जेल जिससे रिहाई पर रोते थे कैदी

लेंस रिपोर्ट

गुर्मा की खुली जेल जिससे रिहाई पर रोते थे कैदी

Awesh Tiwari
Last updated: April 28, 2025 10:42 pm
Awesh Tiwari
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Gurma open Jail
सोनभद्र जिले के गुर्मा खुली जेल का एक दृश्य। (फाइल फोटो)
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सोनभद्र। (Gurma open Jail) बूढ़े चंद्रसेन ने अपनी सिपाही वाली वर्दी की कमीज अब भी पहन रखी है, हां नीचे पैजामा है। मुलाकात घर के इर्द-गिर्द उगी झाड़ियों को देखकर साफ लगता है कि वर्षों से कोई उधर नहीं गया। मुख्य द्वार को जाने वाले रास्ते पर लगी लकड़ी की बेंच 55 साल बाद भी उसी जगह है। बताते हैं कि इस जेल का आखिरी कैदी रामनरेश, जिसे हत्या के जुर्म में सजा हुई थी, यहां से जाते वक्त इसी बेंच पर बैठकर फूट-फूट कर रोया था। जी हां, यह वही जगह है जहां सैकड़ों कैदियों के बीच हिंदुस्तान में अपराध विज्ञान का अब तक का सबसे बड़ा अनुसंधान चल रहा था।

खबर में खास
संपूर्णानंद के सपनों की जेलGurma open Jail: ढाई हजार कैदियों का ठिकानाकैदियों का फॉर्महाउसGurma open Jail: कैदी खिलाड़ियों का था बोलबालाजब बंद हुई जेल

यूपी के सोनभद्र जिले के गुर्मा में यह देश की पहली खुली जेल थी। शायद यह बात इतिहास के पन्नों में दब कर रह गई कि गंभीर अपराधों में शामिल यहां के कैदियों ने ही आजादी के बाद नेहरू के सपनों को पूरा करने के लिए रिंहद बांध के निर्माण में अपनी भूमिका निभाई थी। वक्त बदला, अपराधों और अपराधियों की नई फसलें तैयार हुईं और 1955 में अस्तित्व में आई यह जेल एक रोज बंद कर दी गई।

गुर्मा की खुली जेल अब जिला जेल है।

सोनभद्र जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर स्थित गुर्मा में  ईटे-पत्थरों की एक भव्य इमारत और उसके चारों ओर एक बेहद ऊंची चाहरदीवारी खड़ी हो गयी है। अब यह जिला जेल है। अपराधों की न रुकने वाली पौध के बीच यहां फिर से कैदी आते हैं ,फिर से रोज रात को लम्बरदार ऊंची आवाज में कैदियों का नंबर पुकारता है, फिर से अपराधियों और जेल के रिश्ते बनते हैं,  मगर अफसोस जेल की इन दीवारों के बीच जिंदगी और अपराधियों को अपराध मुक्त जीवन देने की कोशिशें नामौजूद रहती हैं।

संपूर्णानंद के सपनों की जेल

डॉ. संपूर्णानंद, जो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के पूर्व राज्यपाल थे, ने खुली जेल की अवधारणा को भारत में लोकप्रिय बनाया था। जब वह 1955 में मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने गुर्मा से खुली जेल की शुरुआत की फिर यूपी ही नहीं राजस्थान में भी उन्होंने बड़ी संख्या में खुली जेल बनवाई।

Gurma open Jail: जेल बनी थी पाठशाला: 1999 में गुर्मा की इस जेल का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया। जेल के एक पुराने कर्मचारी महमूद बताते हैं “हमने यहां हत्यारों को दूसरों की मौत पर बिलखते देखा है, चोरों को सिपाही का काम करते देखा है ,हमने डकैतों को दूसरों की सेवा करते देखा है, इस जेल ने न सिर्फ कैदियों को बल्कि हमको भी सिखाया कि परिवार , मित्र , समाज और पड़ोस कैसे बनता है।

Gurma open Jail: ढाई हजार कैदियों का ठिकाना

घनघोर जंगल में स्थित इस जेल की कहीं कोई चहारदीवारी नहीं थी। घने जंगलों, जंगली  जानवरों और डोलोमाईट्स के पहाड़ों के बीच स्थित इस जेल में 70 के दशक में दो से ढाई हजार कैदी रहते थे। कैदियों और जेल कर्मचारियों के रहने के लिए टेंट्स बनाये गए थे । चंद्रसेन बताते हैं, आप यकीन नहीं करेंगे रिहंद बांध के निर्माण में भी इन कैदियों का योगदान था, सबेरे 6 बजे 50-50 कैदियों की कमान लेकर सिपाही पहाड़ों पर निकल जाते थे, वहां पर डोलोमाइट्स का खनन होता था जिसे कैदी रज्जू मार्ग से चुर्क सीमेंट फैक्टरी में भेजा करते थे। फैक्टरी में  बनने वाला सीमेंट बांध की दीवारों को बनाने में इस्तेमाल होता था। जब रिहंद बना तो सबसे ज्यादा खुशी यहां के बंदियों को हुई।

14 रुपये मिलती थी तनख्वाह: उस वक्त काम के लिए प्रत्येक कैदी को 14 रुपए रोज मिलते थे, जो सिपाहियों की तनख्वाह से अधिक था। महमूद बताते हैं कैदी नियमित तौर पर यहां से अपने घर मनीआर्डर भेजा करते थे। बाद में जेल प्रशासन की पहल पर कैदियों ने अपनी सहकारी समिति बना ली जिसमे वो अपनी कमाई का एक हिस्सा इकठ्ठा करने लगे। जब कभी किसी कैदी के घर कोई शादी ब्याह पड़ता था तो उसी में से उसको लोन पर अच्छी खासी रकम मिल जाया करती थी ।

कैदियों का फॉर्महाउस

निर्माण के बाद जेल के हिस्से में 26 एकड़ का एक फार्म हाउस भी आया। जिसकी देख रेख बंदी ही किया करते थे, और यह फार्म हाउस एक वक्त सब्जियों के लिए पूरे मिर्जापुर जनपद की सबसे बड़ी थोक मंडी हुआ करती थी। यहां सब्जियों की हर किस्म तो उगाई ही जाति थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के लिए ये फार्म हाउस कृषि विज्ञान की प्रयोगशाला भी हुआ करता था ।

यहां पैदा की जाने वाली सब्जियां ट्रकों से जनपद के कोने कोने में सप्लाई होती थी, अब पूरी तरहसे उजाड़ हो चुके फार्म हाउस में सिर्फ कांटे ही कांटे नजर आते हैं।

मंडियों में जाती थी जेल की सब्जियां: फार्म हाउस के बगल में अपनी जमीन पर धान की कटाई में लगा श्यामलाल बताते हैं, “इतना बैगन होता था कि गाय-भैंस भी नहीं खाती थी। आसपास के 16 गांव वाले जानते ही नहीं थे कि सब्जी खरीदी कैसे जाती है। शिविर में कैदियों की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था तो थी ही, उन्हें मुर्गी पालन, रेशम, कीट पालन के अलावा अन्य तरह के व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिए जाते थे।

जेल में मिलता था अवकाश: जेल की सबसे खास बात ये थी कि यहां के कैदियों को सालभर में एक महीने का अवकाश भी दिया जाता था। मगर अजीब यह था कि कोई भी कैदी छुट्टी के दौरान कभी नहीं भागा। सभी छुट्टी बिताकर वापस बंदी शिविर लौट आते थे। चंद्रसेन बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं, कई कैदी तो जानबूझ कर वापस अपने घर नहीं जाते थे शायद अपराधबोध होता होगा।

चंद्रसेन, गुर्मा जेल के पूर्व कर्मचारी

चंद्रसेन एक कैदी को याद करते हुए कहते हैं कि एक बार की बात याद है, 65 साल का रहमत लखनऊ का था। बच्चों के लड़ाई-झगडे में पड़ोसी पर लाठी चला दी। गलती से लाठी सिर पर लगी और पड़ोसी मारा गया फिर रहमत को 8 साल की सजा हो गई। जब सजा के एक साल बाद वो छुट्टी के लिए घर गया तो महज दो दिन में लौट आया। मैंने पूछा बच्चों से मिले नहीं? तो उसने डबडबाई आंखों से कहा बच्चों को अपराधी पिता नहीं चाहिए और फिर अगले हफ्ते रहमत की अचानक मौत हो गयी।

कैदियों ने बसाया शहर (Gurma open Jail): जेल बंद क्या हुई। बाजार हाट भी सूने हो गए, सब्जी विक्रेता महंगू बताते हैं कि रोज शाम को यहां कैदियों का मेला लगा रहता था। कैदी बाजार में अपनी जरूरतों का समान खरीदते और शाम ढलने पर वापस लौट जाते। दुकानदार बताते हैं कि जेल में चलने वाली कैंटीन के लिए ही रोज बरोज हजारों की खरीद होती थी, जेल के इर्द गिर्द चलने वाली छोटी बड़ी दुकानों रेहड़ियों पर दिन भर बंदियों और जेलकर्मियों का जमावड़ा लगा रहता था।

Gurma open Jail: कैदी खिलाड़ियों का था बोलबाला

संपूर्णानंद जेल की एक बड़ी खासियत यह भी थी कि हर एक बंदी और कैदी जेल की प्रतिष्ठा को लेकर सजग था । जेल में विशेष तौर पर कैदियों के लिए अखाड़े और खेल के मैदान बनाये गए थे। यहां के कई बंदी पहलवानों ने प्रदेश भर में अपनी धाक जमाई । रिटायर हो चुके एक जेलकर्मी बताते हैं कि प्रतियोगिता में जाने से पहले जेलर बकायदे तिलक लगाकर कैदियों को विदा करते थे और हर कीमत पर जीत कर आने और जेल का नाम रौशन करने का वायदा लेते थे। बंदियों के खाने पीने की व्यवस्था भी पूरी तरह से समाजवादी थी। बंदी जो खाना  खाते थे वही खाना जेलकर्मियों को खाना पड़ता था। हां, अगर किसी को बीड़ी, सिगरेट की तलब लगती तो जेल की कैंटीन में वो भी मौजूद था।

जर्जर हाल में मुलाकात घर

कैदियों के परिजनों के लिए थे मुलाकात घर: संपूर्णानंद जी कि सोच के अनुरूप जेल में बंदियों के लिए विशेष साज सज्जा के साथ मुलाकात घर बनाये गए थे।इन मुलाकात  घरों में परिजनों के रुकने की भी व्यवस्था था। जब कभी किसी बंदी कि पत्नी बच्चे आते वो बंदी के साथ इसी मुलाकात घर में रुकते। उनके खाने पीने की व्यवस्था जेल प्रशासन ही करता।

कैदी करते थे जेल की सुरक्षा: इस जेल में सुरक्षा की व्यवस्था की जिम्मेदारी सिर्फ बंदी गृह के कर्मचारियों या पीएसी के जवानों की ही नहीं थी, कैदी भी सुरक्षा व्यवस्था के मुख्य आधार थे। क्यूंकि कैंप में खतरा  बंदियों से नहीं बल्कि जंगली  जानवरों से होता था। अक्सर शेर, बाघ और  भालू कैंप क्षेत्र में घुस आते थे। जागते रहो की आवाज यह बताती थी कि सजग रहो कभी भी मशालों के साथ जंगली जानवरों को भगाने के लिए निकलना पड़ सकता है।

जेल में होती थी रामलीला: संपूर्णानंद शिविर की याद आज भी गुर्मा के आदिवासियों के जेहन में ताजा है। नंदू बताते हैं कि जेल में बंदियों द्वारा की जाने वाली रामलीला जैसी रामलीला सिर्फ रामनगर में ही देखने को मिलती थी। जेल में बने नाट्य कार्यशाला में पूरे महीने भर की तैयारी के बाद जो प्रदर्शन होता था उसे देखने सैकड़ों गांव के लोग जुटते थे। उसके अलावा समय समय पर कैदी ऐतिहासिक कृतियों पर बने नाटकों का मंचन करते थे। जेल में एक ओपन एयर थियेटर भी था, जिसमें सप्ताह में दो दिन बड़े परदे पर सिनेमा दिखाया जाता था।

साहित्यकारों का लगता था जमावड़ा

संपूर्णानंद जेल में हर त्योहार बड़े धूमधाम से मनाये जाते थे। महमूद बताते हैं कि मुझे याद नहीं है कि कभी कैदियों का आपस में किसी बात को लेकर झगड़ा हुआ हो। अगर किसी बात पर मनमुटाव हो भी जाता था तो आपस में सभी बातचीत करके उसे खत्म कर देते थे। महमूद कहते हैं शायद ही दुनिया कि कोई ऐसी जेल हो जहां से रिहाई पर कैदी रोता हो पर यहां यह रोज की बात थी | 1990 में जब राधेश्याम त्रिपाठी जेल अधीक्षक बने तो देश के कई महान साहित्यकार और उपन्यासकार  भी संपूर्णानंद आये |

जब बंद हुई जेल

1999 में जब जेल बंद हुई तब यहां के तमाम कर्मचारी दूसरे जिलों में स्थानांतरित कर दिए गए। चंद्रसेन बताते हैं जिस दिन जेल के बंद होने का फरमान आया उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया। सभी गमगीन थे, एक-एक करके सारे कैदी दूसरी जेलों में भेज दिए गए। चंद्रसेन जिन्हें डीआईजी के घर काम करने से इनकार करने पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था फिर से चौकीदार की नौकरी पा गए। कुछ एक कर्मचारियों को दूसरे जेलों से यहां भेजा गया मगर उन्हें जेल के काम के बजाय  चुनावों और अन्य  कामों में लगा दिया गया है।

चंद्रसेन एक बेहद पुराने नल की ओर दिखाते हैं “देखिये, उस नल में पानी आज भी आता है। सरकार ने करोड़ों की लागत से जेल बना दिया, मगर यहां तो पानी और  बिजली की हमेशा किल्लत रहती है।

यूपी में जेल के अंदर बढ़ रहे अपराध: इस वक्त जबकि उत्तर प्रदेश की जेलों में क्षमता से पांच से सात गुना अधिक कैदी हैं जेलों के भीतर अपराध सारे रिकार्ड तोड़ रहा है। वहीं अपराध और अपराधियों की तादात लगातार  बढ़ती जा रही है। संपूर्णानंद जेल जैसा प्रयोग शायद फिर न किया जा सके। मगर ये सच है हथकड़ियों, बेड़ियों के बिना जेल का जीवन जीने वाले कैदियों को इस नए बने जेल की मिट्टी हमेशा आवाज देगी।

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