छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा पर कर्रेगुटा की पहाड़ियों में बीते 72 घंटे से भी ज्यादा समय से नक्सलियों के खिलाफ चल रहा सुरक्षा बलों का अभियान संभवतः हाल के समय की सबसे बड़ी और सुनियोजित कार्रवाई है। खबरें आ रही हैं कि इस अभियान में हजारों जवानों ने पहाड़ी में बड़ी संख्या में शरण लिए नक्सलियों को घेर रखा है। यह भी बताया जा रहा है कि इनमें हिड़मा और देवा जैसे बड़े नक्सली भी हैं, जिनकी तलाश सुरक्षा बलों को लंबे समय से है। दूसरी ओर भीषण गर्मी में चल रहे सुरक्षा बलों के अभियान से दो दर्जन जवानों के डिहाइड्रेशन के कारण तेलंगाना के अस्पताल में भर्ती किए जाने की भी खबरें हैं, यह बेहद तकलीफदेह है। इस अभियान के बीच में माओवादियों की ओर से एक ताजा चिट्ठी भी जारी की गई है, जिसमें उन्होंने सरकार से शांति वार्ता शुरू करने की अपील की है। इससे साफ है कि नक्सली भारी दबाव में हैं। सरकार की ओर से भी कई बार कहा गया है कि वह नक्सलियों से बातचीत को तैयार है, बशर्ते कि वे हथियार छोड़ कर मुख्यधारा में लौटें। तो फिर अड़चन कहा हैं? हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती और किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बातचीत से बेहतर कोई और विकल्प नहीं हो सकता। अलगाववादियों और उग्रवादियों से शांति वार्ता कोई नई बात नहीं है। आखिर अतीत में सरकार ने मिजो, नगा और बोडो विद्रोहियों और अलगाववादी संगठनों से शांति वार्ता की है और उससे रास्ता भी निकला है। हाल ही में अनेक नागरिक संगठनों ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से अपील की है कि वे बस्तर में चल रहे इस अभियान में दखल दें और शांति वार्ता को एक मौका दें। ऐसी आवाजें कई और जगहों से उठ रही हैं। सरकार के पास यह विकल्प तो खुला है ही कि यदि नक्सली शांति वार्ता और संघर्ष विराम को अपनी रणनीतिक तैयारी की आड़ बनाएं, तो वे उन पर सख्ती से कार्रवाई कर सकती है। ऐसा 2004 में अविभाजित आंध्र प्रदेश में हो भी चुका है, लेकिन वह वार्ता विफल हो गई थी। लेकिन कुर्बानियों से हासिल संसदीय लोकतंत्र इतनी जल्दी थक कैसे सकता है। आखिर लंबे समय से लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत करते बस्तर के आदिवासी बेहतर जीवन के हकदार हैं।