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साहित्य-कला-संस्कृति

अंतिम जोहार रोज दी : खामोश हो गई डायन प्रथा के खिलाफ और आदिवासी अधिकारों की आवाज

The Lens Desk
The Lens Desk
Published: April 21, 2025 1:36 PM
Last updated: April 21, 2025 1:39 PM
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Dr. Rose Kerketta
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Dr. Rose Kerketta: झारखंड की माटी से जुड़ीं, खड़िया आदिवासी समुदाय की बेटी, प्रसिद्ध लेखिका, कवयित्री, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. रोज केरकेट्टा का गुरुवार, 17 अप्रैल 2025 को 84 वर्ष की आयु में निधन हो गया। रोज दी, जैसा कि उन्हें प्यार से पुकारा जाता था, उन्‍होंने अपने जीवन को आदिवासी संस्कृति, भाषा और अधिकारों के संरक्षण के साथ-साथ डायन प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए समर्पित कर दिया। उनकी कहानियां, कविताएं और सामाजिक कार्य झारखंड की सामाजिक सच्चाइयों और जनविमर्श की गहरी छाप थीं।

रोज केरकेट्टा की जिंदगी से एक मार्मिक कहानी तब सामने आती है, जब वे सिमडेगा के एक गांव में डायन प्रथा की शिकार एक महिला से मिलीं। उस महिला को गांव वालों ने डायन घोषित कर सामाजिक बहिष्कार कर दिया था। रोज दी ने न केवल उस महिला को अपने घर में आश्रय दिया, बल्कि गांव वालों को इकट्ठा कर शिक्षा और कानून के बारे में समझाया। उन्होंने उस महिला को सखी मंडल से जोड़ा, जिससे वह आत्मनिर्भर बनी। यह छोटी-सी घटना रोज दी के दृढ़ संकल्प और मानवता को दर्शाती है।

रोज केरकेट्टा की कहानियां और कविताएं केवल साहित्यिक रचनाएं नहीं थीं। वे आदिवासी जीवन की कठोर सच्चाइयों और उनकी आकांक्षाओं का दस्तावेज थीं। पगहा जोरी-जोरी रे घाटो, यह कहानी संग्रह स्त्री जीवन की जटिलताओं और सामाजिक दमन को दर्शाता है। इसमें डायन प्रथा और महिलाओं के शोषण जैसे मुद्दों को संवेदनशीलता से उठाया गया है। बिरुवार गमछा कहानीसंग्रह में आदिवासी जीवन की सादगी और संघर्षों को चित्रित किया गया है, जो पाठकों को उनकी वास्तविकता से जोड़ता है।

Dr. Rose Kerketta: डायन प्रथा के खिलाफ संघर्ष

झारखंड में डायन प्रथा सामाजिक कुरीति रही है, जिसके तहत महिलाओं को अंधविश्वास के आधार पर डायन घोषित कर प्रताड़ित किया जाता है। आंकड़ों के अनुसार झारखंड में प्रतिवर्ष औसतन 35 हत्याएं और हर दिन 2-3 प्रताड़ना के मामले डायन प्रथा के नाम पर दर्ज होते हैं। रोज केरकेट्टा ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ अपनी लेखनी और सामाजिक सक्रियता के माध्यम से विरोध किया।

रोज दी का मानना था कि डायन प्रथा का मूल कारण अशिक्षा और अंधविश्वास है। उन्होंने अपनी रचनाओं और व्याख्यानों के जरिए लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उनकी सहयोगी मालंच घोष के अनुसार रोज दी कहती थीं कि “महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार नहीं देने के लिए डायन बताकर उनका शोषण किया जाता है।” उनकी कहानियां जैसे कि पगहा जोरी-जोरी रे घाटो, स्त्री मन की जटिलताओं और सामाजिक अन्याय को उजागर करती हैं।

महिला सशक्तीकरण: रोज ने महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने पर जोर दिया। वे आधी दुनिया पत्रिका की संपादक रहीं, जो महिलाओं के मुद्दों को उठाने का एक मंच था। उनके प्रयासों ने कई महिलाओं को डायन प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दी।

उनके इस संघर्ष का प्रभाव इतना गहरा था कि सामाजिक कार्यकर्ता छूटनी महतो जैसी शख्सियतें, जिन्हें 2021 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया, रोज दी से प्रेरणा लेकर डायन प्रथा के खिलाफ काम करती रहीं।

Dr. Rose Kerketta: आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष

रोज केरकेट्टा ने आदिवासी समुदाय के जल, जंगल, और जमीन के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष किया। वे झारखंड आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती थीं और आदिवासी भाषा, संस्कृति, और पहचान के संरक्षण के लिए समर्पित रहीं।

झारखंड आंदोलन में योगदान: 20वीं सदी में शुरू हुए झारखंड आंदोलन, जिसका लक्ष्य छोटा नागपुर पठार और आसपास के क्षेत्रों को अलग राज्य का दर्जा दिलाना था। इस आंदोलन में रोज दी ने सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने आदिवासी समुदायों को संगठित करने और उनकी आवाज को राष्ट्रीय मंच तक पहुंचाने में मदद की।

खड़िया भाषा और संस्कृति का संरक्षण: रोज ने खड़िया भाषा को बढ़ावा देने के लिए रांची विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में काम किया और खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक अध्ययन किया। उनकी रचनाएं जैसे सिंको सुलोलो (खड़िया कहानियों का संग्रह), आदिवासी संस्कृति को जीवंत रखने का प्रयास थीं।

जमीन के अधिकारों की वकालत: आदिवासियों की जमीन पर बढ़ते अतिक्रमण और विस्थापन की समस्या पर रोज ने खुलकर आवाज उठाई। उन्होंने पत्थलगड़ी आंदोलन जैसे आंदोलनों का समर्थन किया, जो आदिवासी भूमि के अधिकारों की रक्षा के लिए शुरू हुआ था।

Dr. Rose Kerketta: सम्मान और विरासत

रोज केरकेट्टा को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए प्रभावती सम्मान, रानी दुर्गावती सम्मान और अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान जैसे कई पुरस्कारों से नवाजा गया। वे रांची विश्वविद्यालय में खड़िया भाषा की प्रोफेसर रहीं और देश-विदेश में आदिवासी संस्कृति पर व्याख्यान दिए।

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा, “उनका जाना साहित्य जगत और आदिवासी समुदाय के लिए एक बड़ा नुकसान है।” उनकी विरासत उनकी रचनाओं, उनके विचारों, और उनके द्वारा प्रेरित लोगों के माध्यम से जीवित रहेगी।

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