
Trump Tariffs: इतिहास हर साल नयी या विचित्र चीज की तलाश करता है। ज्यादा संभावना यही है कि वर्ष 2025 को इतिहास में एक ऐसे साल के तौर पर याद रखा जाएगा, जब ‘टैरिफ’ सबसे लोकप्रिय या फिर सबसे अधिक बार ढूंढा जाने वाला शब्द था। अमेरिका का दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने जब एक रैली में यह कहा कि ‘टैरिफ’ डिक्शनरी का सबसे सुंदर शब्द है, तब से ही दुनिया भर में इस पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। पिछले करीब नब्बे दिनों में शायद ही ऐसा कोई अवसर आया होगा, जब टीवी, अखबार, ट्विटर (अब एक्स) या ऑफिस में संक्षिप्त अवकाश के दौरान इस शब्द पर चर्चा न हुई हो।
यानी कौन किस पर कितना टैरिफ लगा रहा है, उसका वैश्विक अर्थव्यवस्था, दुनिया भर के शेयर बाजारों और वैश्विक भू-राजनीति पर कैसा असर पड़ने जा रहा है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, टैरिफ एक शुल्क या शुल्कों की वह सूची है, जिसे किसी वस्तु के दूसरे देश में भेजे जाने पर लगाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि आपके देश में खरीदने और उपभोग करने के लिए जो भी वस्तु जा रही है, उसे खरीदने के लिए आप जो पैसा खर्च कर रहे हैं, उसका कुछ प्रतिशत आपकी सरकार टैरिफ या कस्टम्स ड्यूटी के रूप में वसूलेगी। इससे वह उत्पाद महंगा हो जाएगा, जिससे आपके रहन-सहन का स्तर घट जाएगा।
फ्री मार्केट या मुक्त बाजार के प्रसिद्ध हिमायती मिल्टन फ्रीडमैन टैरिफ संरक्षणवाद के घनघोर विरोधी थे और इसे वह सरकारी हस्तक्षेप के रूप में देखते थे, जो अंतत: उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाता है और आर्थिक विकास को बाधित करता है। उनका तर्क था कि टैरिफ भले ही अल्पावधि में कुछ खास उद्योगों को फायदा पहुंचाता हो, लेकिन आखिरकार यह उपभोक्ताओं के लिए महंगाई बढ़ाता है, आर्थिक गतिविधियों को नुकसान पहुंचाता है और अकुशलता को बढ़ावा देता है। हम टैरिफ को एक संरक्षणवादी उपाय कहते हैं। मिल्टन का कहना है, ‘यह संरक्षण देता है।…यह कम कीमत के विरुद्ध उपभोक्ताओं का संरक्षण करता है।’
तो फिर ट्रंप टैरिफ यानी शुल्क क्यों थोप रहे हैं? शुल्क थोपने के पीछे ट्रंप कई कारण बता रहे हैं, उनमें से मुख्य यह है कि विदेशी सामान पर अधिक टैरिफ लगाने या उनके महंगे होने से अमेरिकी उपभोक्ता अपने यहां के सामान खरीदने के प्रति प्रोत्साहित होंगे तथा टैक्स की दर बढ़ाने से अमेरिका में निवेश में व्यापक वृद्धि होगी।
विदेशी वस्तुओं पर टैरिफ लगाकर ट्रंप उन वस्तुओं की वैल्यू में व्याप्त अंतर को पाटना चाहते हैं, जिन्हें अमेरिका दूसरे देशों से खरीदता है और जिन्हें वह दूसरे देशों को बेचता है। ट्रंप की सोच यह भी है कि टैरिफ के जरिये प्राप्त राजस्व से राष्ट्रीय कर्ज को कम करने में मदद मिलेगी, जो अभी लगभग 36 ट्रिलियन डॉलर है।
इस कर्ज पर अमेरिका को सालाना तीन ट्रिलियन डॉलर ब्याज चुकाना पड़ता है, जो बहुत चिंताजनक है। ट्रंप प्रशासन ने जिम्मेदारी संभालते ही अपनी सरकार के कामकाज में कमियां और दरारें तलाशनी शुरू कर दी थीं। उसने डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डी.ओ.जी.ई.) का गठन किया और इसका प्रमुख इलोन मस्क को बनाया। डी.ओ.जी.ई. का काम सरकार का खर्च घटाते हुए अमेरिकी कर्ज में कमी लाना है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की जटिलता
Trump Tariffs: हम जिस दौर में हैं, उसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था इस तरह एक दूसरे से जुड़ी हुई है कि हम उपभोग की जानेवाली वस्तुओं पर पड़ने वाले उसके असर की एक दिन भी अनदेखी नहीं कर सकते, न ही उसे हल्के में ले सकते हैं। आज विश्व व्यापार ने यह संभव कर दिया है कि वस्तुओं का निर्माण उसके लिए जरूरी कच्चे मालों की उपलब्धता वाली जगहों के नजदीक हो और फलों और सब्जियों को हम वहां से प्राप्त करें, जहां उनका उत्पादन होता हो या जहां वे इफरात में पाए जाते हों।
वर्ष 2020 में-यानी कोविड के शुरुआती महीनों में लॉजिस्टिक्स की कमी ने अनेक देशों को अचानक परेशानी में डालकर उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि वे विश्व व्यापार पर आखिर कितना निर्भर रहें? चीन और ताइवान जैसे मैन्यूफैक्चरिंग सुपरपावर्स पर अत्यधिक निर्भरता से सेमीकंडक्टर्स पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन ही बाधित हो गया।
विश्व व्यापार दरअसल वस्तुओं और सेवाओं के आयात-निर्यात के अलावा कुछ नहीं है। जब एक देश के कुल विश्व व्यापार में निर्यात का हिस्सा आयात से ज्यादा हो, तो उसे ट्रेड सरप्लस यानी व्यापार लाभ कहते हैं। और जब किसी देश के विश्व व्यापार में आयात का हिस्सा निर्यात से अधिक हो, तो उसे ट्रेड डिफिशिट यानी व्यापार घाटा कहते हैं। जब आप दो देशों के व्यापार (द्विपक्षीय व्यापार) पर गहराई से नजर दौड़ाएं, तो पाएंगे कि इनमें से कुछ देशों को व्यापार लाभ होता है, तो कुछ देशों के हिस्से में व्यापार घाटा आता है।
जहां तक अमेरिका की बात है, तो वह व्यापार घाटे का सामना करता है। अमेरिका दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्था है, जो वैश्विक जीडीपी में 26 प्रतिशत का योगदान करता है। दूसरे नंबर पर चीन है, जिसका वैश्विक जीडीपी में योगदान 17 फीसदी है। इसके बावजूद चीन की तुलना में अमेरिका को व्यापार घाटे का सामना करना पड़ता है। जबकि चीन व्यापार लाभ की हैसियत में है।
जाहिर है, वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकता। ट्रंप प्रशासन द्वारा चीन पर पारस्परिक टैरिफ लगाए जाने का नतीजा यह है कि चीन ने भी अमेरिका पर पारस्परिक शुल्क थोपे हैं। जाहिर है कि विश्व व्यवस्था इसके असर का सामना कर रही है, जिसका नतीजा मूल्यवृद्धि, कच्चे तेल के दाम में कमी, शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव और मंदी के रूप में सामने आ सकता है
हम कितने तैयार हैं?
Trump Tariffs: भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के साथ-साथ दुनिया में सबसे तेज वृद्धि करनेवाली अर्थव्यवस्था भी है। यह अलग बात है कि वैश्विक निर्यात में इसकी हिस्सेदारी दो प्रतिशत से भी कम है। इसका कारण हमारे विशाल घरेलू बाजार को बताया जाता है।
देखने वाली बात यह है कि घरेलू स्तर पर संरक्षणवादी वातावरण बनाए रखने और आत्मनिर्भरता को गति देने की कोशिश के बावजूद आयात पर हमारी निर्भरता घटी नहीं है, और न ही इससे भारत के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि आई है। ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी शुल्कों का, चाहे वे किसी भी तरह लगाए जाएं, प्रतिकूल असर ही पड़ेगा और शेयर बाजार भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।
चूंकि टैरिफ के जरिये अमेरिका ने चीन पर शिकंजा कस दिया है, ऐसे में यह उम्मीद की जा रही है कि मैन्यूफैक्चरिंग यानी विनिर्माण के क्षेत्र में भारत को इसका फायदा मिलेगा। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग और टेक्सटाइल्स के क्षेत्र में इसका संभावित लाभ हमें मिलता दिखाई नहीं दे रहा। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में इसका लाभ जहां वियतनाम और ताइवान को मिल रहा है, वहीं टेक्सटाइल्स के क्षेत्र में कंबोडिया और बांग्लादेश को इसका फायदा पहुंचता दिख रहा है।
हालांकि पेट्रोलियम उत्पाद, सॉफ्टवेयर (आईटी), आभूषण और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्रों में हमारा निर्यात अब भी आगे है। और अमेरिका के साथ व्यापार में हम ट्रेड सरप्लस यानी व्यापार लाभ की स्थिति में हैं। इसका अर्थ यह है कि हम अमेरिका को निर्यात ज्यादा करते हैं, और आयात कम करते हैं।
चूंकि अमेरिकी टैरिफ को कुछ समय के लिए टाल दिया गया है, इस कारण विश्व बाजारों में अभी शांति है। लेकिन टैरिफ थोपे जाने के घटनाक्रम ने न केवल अमेरिका के घरेलू उपभोग के लिए विश्व व्यापार पर निर्भरता की विवशता को रेखांकित किया है, बल्कि अमेरिका के साथ व्यापार में जो देश ट्रेड सरप्लस की स्थिति में हैं, उन्हें भी यह सोचने के लिए बाध्य किया है कि अमेरिका के साथ उनके व्यापार का भविष्य आखिर क्या होगा?
भारत के लिए यह अपनी अर्थव्यवस्था को और खोलने पर विचार करने का समय है, और इसी के साथ-साथ दूसरे देशों के साथ व्यापार करने की निर्भरता पर सोचने का भी यह अवसर है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘मेक फॉर इंडिया’ और इन जैसे दूसरे अभियानों के जरिये भारत को वास्तविक अर्थ में आत्मनिर्भर बनाने का समय अब आ गया है। आवश्यक है कि हमारे घरेलू बुनियादी ढांचे का विकास, और मैन्यूफैक्चरिंग जरूरतें अपनी घरेलू जरूरतों से अधिक हों और विश्व व्यापार में अपना योगदान बढ़ाने के बारे में हम गहराई से विचार करें।
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