
अब जबकि ठीक एक साल बाद अगले 2026 की गर्मियों में पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं, राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार बचाव की मुद्रा में है। 2011 के मई की तपती गर्मियों में ममता बनर्जी ने तीन दशक से भी लंबे समय से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर सीपीएम की अगुआई वाली वाम मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका था।
अभी हाल तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी अपराजेय लग रही थी। तृणमूल कांग्रेस ने पिछले साल पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुवावों में जबर्दस्त जीत हासिल की थी। यहां तक कि उसने उत्तरी अलिपुरद्वार जिले की मदरीहाट में भारी मतों से जीत दर्ज की थी, जिस पर 2016 और 2021 पर भाजपा का कब्जा था। तृणमूल उम्मीदवारों ने विधानसभा में विपक्ष के नेता सुवेंदू अधिकारी के आखिरी गढ़ सितई, हरोरा, नैहाटी, तलडंगरा और मेदिनीपुर में उल्लखनीय जीत हासिल की थी। लेकिन 2019 में मानो चक्र उलटा घूम गया जब भाजपा ने सीटों की संख्या और वोट फीसदी दोनों के लिहाज से तृणमूल को कड़ी टक्कर दी थी।
भाजपा को 40.2 फीसदी वोट मिले थे और यह 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे मिले वोट से 17 फीसदी अधिक और तृणमूल को मिले 43.3 फीसदी वोट से केवल 3.1 फीसदी कम थे। दिलचस्प यह भी है कि तृणमूल का वोट शेयर 2014 के 39.7 फीसदी से 3.6 फीसदी बढ़ गया, लेकिन दूसरी ओर तृणमूल विरोधी वोट एक मुश्त भाजपा के पक्ष में चले गए। इस तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जहां 18 सीटें मिलीं वहीं तृणमूल को 22 जो कि 2014 की उसकी सीटों से दो अधिक थी।
लेकिन पांच साल बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने 29 सीटें जीत कर काफी हद तक अपनी खोई जमीन फिर हासिल कर ली। भाजपा को केवल 12 सीटें मिलीं। तृणमूल का वोट दो फीसदी बढ़ गया और भाजपा का दो फीसदी घट गया। यों तो दोनों पार्टियों के बीच सात फीसदी वोटों का अंतर था, लेकिन दोनों की सीटों में खासा अंतर आ गया।
भाजपा का ध्रुवीकरण और मुस्लिम फैक्टर
वास्तव में तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में तीन दशक (1978-2011) से भी लंबे समय तक सत्ता में रहे लेफ्ट फ्रंट के लगातार कमजोर पड़ने का लाभ हुआ। कभी राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी रही कांग्रेस का भी क्षरण हुआ है।
भाजपा के उभार ने बंगाल में राजनीति का धुर्वीकरण कर दिया, जिससे राज्य के मुस्लिम मतदाता (राज्य की आबादी में 27 फीसदी की हिस्सेदारी) बड़ी संख्या तृणमूल कांग्रेस के साथ चले गए। विश्लेषकों के मुताबिक बीते दशक की कोशिशों के बावजूद इस मजबूत वोट बैंक के कारण भाजपा तृणमूल के किले को भेद नहीं सकी है।
पश्चिम बंगाल में ज्यादातर मुस्लिम आबादी छह जिलों, मुर्शिदाबाद, मालदा, बीरभूम, उत्तरी और दक्षिण परगना और उत्तरी दीनजपुर में सिमटी हुई है। राज्य विधानसभा की 294 सीटों में से 120 में मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं। हालांकि केवल 87 सीटों पर उनकी वोट हिस्सेदारी 30 फीसदी से अधिक है। 45 सीटों पर उनका बहुमत है, वहीं 77 सीटों पर उनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी वोट से भी कम है।
विश्लेषकों का कहना है कि अगर तृणमूल कांग्रेस को मुसलमानों के पूरे समर्थन से 110-120 सीटें मिलने की गारंटी हो, तो उन्हें बहुत बड़ी बढ़त मिल जाती है। चुनाव विशेषज्ञ सब्यसाची बसु राय चौधरी कहते हैं, “अगर तृणमूल को मतदाताओं के एक-चौथाई हिस्से का समर्थन पक्का हो, तो उन्हें बाकी 70 से 75 फीसदी मतदाताओं में से सिर्फ 15 से 17 फीसदी वोट चाहिए, ताकि वे निर्णायक जीत हासिल कर सकें।” वह कहते हैं कि हिन्दू वोट जीतने में भाजपा तृणमूल से आगे है, लेकिन उसे सत्ता से बाहर करने के लिए और वोट की जरूरत होगी। और इसका मतलब है बहुसंख्यक ध्रुवीकरण।
बांग्लादेश फैक्टर
पिछले साल अगस्त में अवामी लीग के बांग्लादेश की सत्ता से बाहर होने के बाद वहां हिन्दुओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ गए। मोदी सरकार ने वहां की अंतरिम सरकार के सामने यह मुद्दा कई बार उठाया है। भाजपा के एक करोड़ नए सदस्य बनाने वाले अभियान में पिछले साल अगस्त में बांग्लादेश में हसीना के सत्ता से हटने से तेजी आई। वरना लोकसभा चुनाव के खराब प्रदर्शन के कारण इस अभियान में सुस्ती थी।
प्रधानमंत्री मोदी ने बैंकाक में बिम्सटेक की बैठक के दौरान मोहम्मद युनूस से हुई मुलाकात में बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले का मुद्दा उठाया। पश्चिम बंगाल में भाजपा बांग्लादेश में हिन्दुओं की असुरक्षा को बड़ा मुद्दा बना रही है। सुवेंदू अधिकारी ने यहां तक कह दिया कि “बांग्लादेश तो एक रिहर्सल है, पश्चिम बंगाल में भी हिन्दुओं के साथ यही होगा।“
पिछले साल नवंबर में बांग्लादेश में इस्कॉन नेता चिन्मय प्रभु की गिरफ्तारी के बाद, खासकर बांग्लादेश से सटे जिलों और बड़ी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में भाजपा के सदस्यता अभियान में तेजी आई। साल के आखिर तक भगवा पार्टी ने 40 लाख ने नए सदस्य जोड लिए। राजनीतिक विश्लेषक आशीष बिश्वास कहते हैं, “हसीना की बेदखली के बाद बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथ का उभार ऐसा, लगता है कि भाजपा के लिए वरदान बनकर आया है। आखिरकार उन्हें खेलने के लिए एक धार्मिक कार्ड मिल गया है।“
शिक्षक भर्ती घोटाला
हाल ही में राज्य के सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों के 25,753 शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की नियुक्तियों के रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ा दी है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में चयन प्रक्रिया को “दूषित और कलंकित” करार देते हुए, कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसने बड़े पैमाने पर अनियमितताओं के कारण इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया था। इस फैसले के बाद भाजपा ने ममता के इस्तीफे की मांग की है। हालांकि ममता कह रही हैं कि वे किसी की नौकरी नहीं जाने देंगी, लेकिन यह इतना आसान नहीं है।
शिक्षक भर्ती घोटाले के कारण पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी जुलाई 2022 से जेल में हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाई कोर्ट के आदेश को सही ठहराने का फैसला ऐसे समय में आया है, जब तृणमूल कांग्रेस पहले से ही कोलकाता के आर जी कर मेडिकल कॉलेज में एक पोस्ट-ग्रेजुएट महिला इंटर्न के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में बैकफुट पर है। पिछले साल अगस्त में हुई इस हत्या के बाद कोलकाता और अन्य शहरों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे।
आशीष बिश्वास कहते हैं, ” भरती घोटाला और मेडिकल इंटर्न की हत्या, ये दोनों ही युवा मतदाताओं खासतौर पर शहरी क्षेत्रों में महिला मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं।” विश्लेषक अदिति भादुरी कहती हैं कि भाजपा अब तृणमूल पर तीन मोर्चों पर हमला तेज कर सकती है, कथित मुस्लिम तुष्टीकरण, बड़े पैमाने पर कथित भ्रष्टाचार और बदतर कानून व्यवस्था, जिसने महिला सुरक्षा को और गहरा दिया है।
भाजपा का चेहरा कौन?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा अब तक दो मोर्चों पर विफल रही है – ‘मोदी फैक्टर’ पर अत्यधिक निर्भर रहने के बजाय एक बड़े बंगाली नेता को खड़ा करना और संभावित तथा अनिर्णायक मतदाताओं को जुटाने में सक्षम एक मजबूत जमीनी संगठन तैयार करना।
राजनीतिक टिप्पणीकार आशीष बिश्वास कहते हैं, “बंगाली उन पार्टियों का समर्थन नहीं करते, जिनके पास मजबूत स्थानीय नेता नहीं हैं। देखिए, जब ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी बनाई, तो कांग्रेस का क्या हाल हो गया। इसलिए भाजपा को ममता बनर्जी का मुकाबला करने के लिए किसी कद्दावर नेता को ढूंढना होगा, जिसे बंगाली मानसिकता की स्पष्ट समझ हो।“
“आरएसएस प्रशिक्षित नेताओं” और अन्य पार्टियों से भाजपा में शामिल किए गए नेताओं के बीच का विभाजन अब तक राज्य इकाई पर नकारात्मक रूप से प्रभाव डाल चुका है। यदि भगवा पार्टी को तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ मजबूत चुनौती पेश करनी है, तो उन्हें योगी आदित्यनाथ के बंगाली समकक्ष को ढूंढना होगा, जो मोदी की छाया में न रहे। जो कहना आसान है, करना मुश्किल।
2026 के चुनाव का कथानक तैयार
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों ही तेजी से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। यह हाल ही में मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा के दौरान स्पष्ट हुआ, जब हाल के वक्फ कानून के खिलाफ आंदोलन ने मुस्लिम समुदाय को सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया। जफराबाद में एक मुस्लिम भीड़ ने एक पिता और पुत्र को मार डाला, जो पेशे से मूर्ति निर्माता थे, और सुरक्षा बलों की गोलीबारी में एक मुस्लिम लड़के की मौत हो गई। केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश पर तैनात करना पड़ा, जो स्पष्ट रूप से तृणमूल कांग्रेस की सख्त कार्रवाई करने में अनिच्छा को दर्शाता है। इससे भाजपा को वह मिल गया, जिसकी उसे जरूरत थी – एक शक्तिशाली नैरेटिव कि “बंगाली हिंदू न केवल बांग्लादेश में, बल्कि पश्चिम बंगाल में भी संकट में हैं”। मुर्शिदाबाद से पड़ोसी मालदा जिले में भागते हिंदुओं की टेलीविजन पर दिखाई गई तस्वीरों ने इस छवि को और मजबूत किया। कुछ लोग कहते हैं कि 2026 का बंगाल चुनाव “1947 की छाया” में होगा, यानी बंगाल के विभाजन की ओर ले जाने वाले तीव्र धार्मिक ध्रुवीकरण के माहौल में।
( सुबीर भौमिक, बीबीसी और रायटर के पूर्व संवाददाता और लेखक हैं)
( Subir Bhaumik is a former BBC and Reuters correspondent and author)
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