द लेंस की शुरुआत के मौके पर हुई चर्चा के दौरान द वायर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने बेशक यह कोई नई बात नहीं कही कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल के लिए सरकार चुनना नहीं है, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इस बहस को व्यापक फलक दे दिया है कि क्या भारतीय जनतंत्र को एहसास है कि उसे कौन से सवाल करने चाहिए। दरअसल आज मीडिया का सबसे बड़ा संकट यही है कि वह जवाबदेह लोगों से सवाल नहीं कर रहा है। लोकतंत्र अपने आपमें एक व्यापक अवधारणा है, और हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी, उसमें सरकारों को लोक के वाहक के रूप में काम करना था। इसमें संस्थाओं की अहम भूमिका होनी चाहिए थी और ऐसा होता भी रहा है, लेकिन जिन संस्थाओं को स्वायत्त होना चाहिए था, उनका इधर तेजी से क्षरण हुआ है। मुश्किल यह है कि यह क्षरण मीडिया में भी हुआ है, जिस पर संस्थाओं से सवाल पूछने की जिम्मेदारी थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि सच को तलाश करना कितना मुश्किल है, जैसा कि इसी चर्चा में शामिल प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा कि सच आज धुंधला हो गया है, जिससे उसकी पहचान मुश्किल हो गई है। इसकी शिनाख्त करने में मीडिया की ही भूमिका अहम हो सकती है, बशर्ते कि, जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने कहा, वह ऐसी कहानियों को बाहर लाए जो गुमनामी के अंधेर में कहीं गुम हो गई हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इसे लोकतंत्र की रोशनी में देखने की जरूरत है।