वक्फ बिल के पारित होने के बाद से फैली आशंकाओं, संदेहों और अफवाहों के बीच इस मामले में तात्कालिक रूप से यथास्थिति बनाए रखने वाला सुप्रीम कोर्ट का ताजा कदम राहत देने वाला है, क्योंकि इस मसले पर व्यापक जिरह जरूरी है। अव्वल तो यही कि सरकार वक्फ बिल को जिस तरह आम मुस्लिमों के पक्ष में ऐतिहासिक कदम बता रही है, तो उसके इस दावे की अदालत में परतें उघड़ रही हैं। बचाव पक्ष की दलील है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14,15, 25 (धार्मिक स्वतंत्रता), 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता), 29 (अल्पसंख्यक अधिकार), और 300A (संपत्ति का अधिकार) का उल्लंघन करता है। सरकार की ओर से कोर्ट में कहा गया है कि अभी सेंट्रल वक्फ काउंसिल और वक्फ बोर्ड में गैरमुस्लिमों की भरती नहीं की जाएगी और मौजूदा वक्फ संपत्ति से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, लेकिन अदालत से बाहर दिए जा रहे बयानों से यह मेल नहीं खाते। खुद मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस बात का संज्ञान लिया है कि अंग्रेजों से पहले कोई पंजीकरण संस्था नहीं थी, ऐसे में 14 वीं 15 वीं सदी की मस्जिदों से संबंधित दस्तावेज कैसे मिलेंगे। असल में आशंका यही है कि नए कानून से ऐतिहासिक मस्जिदें, कब्रिस्तान और धर्मार्थ संपत्तियां वक्फ दस्तावेज के अभाव में अपना धार्मिक चरित्र खो सकती हैं। यही नहीं, इस कानून की धारा 3 सी, सरकार को यह अधिकार देती है कि वह किसी संपत्ति को एकतरफा तरीके से सरकारी घोषित कर दे। इस पर बचाव पक्ष के वकील कपिल सिब्बल की इस दलील से सरकार की मंशा को समझा जा सकता है कि, सरकारी अधिकारी कैसे खुद ही फैसला कर सकते हैं, जब मामला सरकार और वक्फ के बीच का हो? उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत से संविधान पर भरोसा मजबूत करने वाली कोई राह जरूर निकलेगी।