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सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए तय की तीन महीने की समय-सीमा, पॉकेट वीटो पर लगाम

SUPREME COURT VERDICT

पूनम ऋतु सेन
पूनम ऋतु सेन
Byपूनम ऋतु सेन
पूनम ऋतु सेन युवा पत्रकार हैं, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में बीटेक करने के बाद लिखने,पढ़ने और समाज के अनछुए पहलुओं के बारे में जानने की...
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Published: April 12, 2025 5:49 PM
Last updated: April 14, 2025 8:35 PM
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SUPREME COURT VERDICT: द लेंस ब्यूरो| भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में देश के राष्ट्रपति के लिए पहली बार समय-सीमा तय की है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति के पास पूर्ण या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है और उनके फैसलों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। यह फैसला 8 अप्रैल को तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के विवाद में सुनाया गया जिसे 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। यह निर्णय भारत की शासन व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही का नया अध्याय जोड़ता है।

SUPREME COURT VERDICT: शासन में पारदर्शिता की नई शुरुआत
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल से प्राप्त विधेयक पर तीन महीने के भीतर स्वीकृति देनी होगी या अस्वीकरण का कारण बताना होगा। यदि इस अवधि में देरी होती है तो इसके कारणों को दर्ज करना होगा और संबंधित राज्य को सूचित करना अनिवार्य होगा।

यह भी पढ़ें : कांग्रेस ने तेज तर्रार प्रवक्ता आलोक शर्मा और लालू के समधी अजय यादव को क्यों हटाया?
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा संभव है। अगर फैसला मनमाना या राज्य मंत्रिमंडल की सलाह के खिलाफ लिया गया हो तो अदालत विधेयक की वैधानिकता की जांच कर सकती है। इस फैसले ने केंद्र और राज्यों के बीच विधायी प्रक्रिया को और सुचारू करने का मार्ग प्रशस्त किया है।

तमिलनाडु के संघर्ष ने दिखाई राह
यह मामला तमिलनाडु से शुरू हुआ जहां राज्यपाल आरएन रवि ने विधानसभा द्वारा पारित 10 महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी देने में देरी की। डीएमके सरकार ने इसे शासन में बाधा बताते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने न केवल राज्यपालों को विधेयकों पर एक महीने में फैसला लेने का आदेश दिया बल्कि राष्ट्रपति की भूमिका को भी परिभाषित किया।

अदालत ने राज्यपाल के रवैये को ‘मनमाना’ और ‘कानूनन अस्वीकार्य’ करार दिया। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल का काम विधानसभा को सलाह देना और सहयोग करना है न कि विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोकना। यह फैसला राज्यों के अधिकारों की रक्षा और संघीय ढांचे को मजबूत करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

पॉकेट वीटो क्या है? अब क्यों लगी रोक?
पॉकेट वीटो तब होता है जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को न तो स्वीकार करता है और न ही अस्वीकार बल्कि उसे अनिश्चितकाल तक लटकाए रखता है। यह एक तरह का मौन अस्वीकृति है जो बिना औपचारिक घोषणा के विधेयक को प्रभावहीन कर देता है। सुप्रीम कोर्ट ने अब इस शक्ति पर अंकुश लगाते हुए तीन महीने की समय-सीमा तय की है।

भारत में पॉकेट वीटो का इतिहास
1986: राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक पर पॉकेट वीटो का इस्तेमाल किया। इस विधेयक में प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के प्रावधान थे और यह अंततः लैप्स हो गया। भारत में पॉकेट वीटो का उपयोग बहुत कम हुआ है और इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में देखा गया है।

अब रोक क्यों?
हाल के वर्षों में कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल और पंजाब ने शिकायत की कि केंद्र समर्थित राज्यपाल विधेयकों को जानबूझकर लटका रहे हैं। यह राज्यों के शासन को प्रभावित करता है और केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव पैदा करता है। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम ऐसी देरी को रोकने और विधायी प्रक्रिया को गति देने के लिए है।

राज्यपाल और राष्ट्रपति : एक संवैधानिक संतुलन
भारत के संघीय ढांचे में राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और राज्यों में संवैधानिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं। अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल किसी विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, अस्वीकार कर सकते हैं या राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज सकते हैं, खासकर जब वह राष्ट्रीय महत्व का हो या केंद्र के कानूनों से टकराता हो।

यह भी पढ़ें : बर्खास्तगी के खिलाफ सड़क पर शिक्षक, OMR शीट जारी करने की मांग को लेकर मार्च
राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत विधेयक पर फैसला लेना होता है लेकिन अब तक कोई समय-सीमा नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने इस प्रक्रिया को और स्पष्ट और समयबद्ध बना दिया है। यह दोनों पक्षों के बीच सहयोग को बढ़ावा देता है ताकि शासन में अनावश्यक रुकावटें न आएं।

SUPREME COURT VERDICT: सुप्रीम कोर्ट के चार बड़े निर्देश
फैसला अनिवार्य: राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर विधेयक पर फैसला लेना होगा।
न्यायिक समीक्षा: राष्ट्रपति के फैसले की जांच हो सकती है खासकर अगर वह मनमाना हो या राज्य की सलाह के खिलाफ हो।
पारदर्शिता: देरी होने पर कारण बताना होगा और राज्य को सूचित करना होगा।
बार-बार वापसी पर रोक: अगर विधानसभा दोबारा विधेयक पारित कर दे तो राष्ट्रपति को अंतिम फैसला लेना होगा, उसे बार-बार लौटाया नहीं जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल विधायी प्रक्रिया को तेज करता है बल्कि राज्यों के अधिकारों को भी मजबूत करता है। पॉकेट वीटो पर अंकुश और समय-सीमा का निर्धारण यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। यह निर्णय केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग को बढ़ावा देगा और भारत के जीवंत लोकतंत्र को और सशक्त बनाएगा।

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Byपूनम ऋतु सेन
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पूनम ऋतु सेन युवा पत्रकार हैं, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में बीटेक करने के बाद लिखने,पढ़ने और समाज के अनछुए पहलुओं के बारे में जानने की उत्सुकता पत्रकारिता की ओर खींच लाई। विगत 5 वर्षों से वीमेन, एजुकेशन, पॉलिटिकल, लाइफस्टाइल से जुड़े मुद्दों पर लगातार खबर कर रहीं हैं और सेन्ट्रल इण्डिया के कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में अलग-अलग पदों पर काम किया है। द लेंस में बतौर जर्नलिस्ट कुछ नया सीखने के उद्देश्य से फरवरी 2025 से सच की तलाश का सफर शुरू किया है।
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