चीन पर 125 फीसदी टैरिफ थोपने के कुछ घंटे बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के जिनपिंग सरकार से बातचीत की गुंजाइश तलाशने के चाहे जो अर्थ निकाले जाएं, लेकिन इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में छाई अस्थिरता के जल्द दूर होने के आसार नहीं हैं। दोनों देशों ने शह और मात की तर्ज पर पिछले कुछ दिनों में एक दूसरे पर टैरिफ की नई दरें थोपी हैं। ट्रंप की 75 से अधिक देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ पर 90 दिनों की रोक लगाने की घोषणा के साथ ही अमेरिकी बाजारों के शेयर बाजारों में आए उछाल के बावजूद हकीकत यही है कि मौजूदा संकट की सबसे बड़ी वजह दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका और चीन के बीच का टैरिफ टकराव है। इसके साथ ही ट्रंप चीन सहित सारे देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने के दो अप्रैल के अपने जिस फैसले को अमेरिका के हित में बता रहे थे, उस पर तो वहां के बाजारों और निवेशकों का भी पूरा भरोसा नहीं है। मामला सिर्फ चीन का नहीं है, ट्रंप के कदम का असर भारत और यूरोपीय देशों से द्विपक्षीय कारोबार पर भी पड़ना तय है। उनके इस कदम ने वैश्वीकरण की उस अवधारणा को भी धक्का पहुंचाया है, जिस पर चलकर भारत जैसे देश ने अपना विशाल बाजार दुनिया के लिए खोल दिया। भारत के नीति नियंताओं को सोचना होगा कि मौजूदा संकट में अमेरिका पर कितना भरोसा किया जाए और अपने देश के हित कहां निहित हैं।