वक्फ बिल के संसद से पारित होने के बाद जनता दल (यू) से मुस्लिम नेताओं और कार्यकर्ताओं के इस्तीफे अप्रत्याशित नहीं हैं. क्योंकि इस बिल से वे खुद को बेबस पा रहे हैं। गौर किया जाना चाहिए कि मोदी सरकार को इस विवादास्पद बिल को पारित करवाने में कोई अड़चन नहीं आई, क्योंकि उनके दो अहम सहयोगी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू उनके साथ थे। इस बिल ने मुस्लिम तबके को और अधिक हाशिये पर तो धकेला ही है, इसने देश की सेकुलर सियासत को भी उलट पुलट दिया है। बेशक, नीतीश और चंद्रबाबू लोकसभा चुनाव के समय से ही भाजपा के साथ हैं, फिर भी उनकी छवि सेकुलर नेताओं की रही है, लेकिन वक्फ बिल ने वह झीना परदा भी हटा दिया है, जिसकी वजह से मुस्लिम उन्हें अपने खैरख्वाह मानते रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर बिहार में जब कुछ महीने बाद चुनाव होने हैं, नीतीश के जनता दल (यू) ने ऐसा कदम क्यों उठाया जिसकी उसे भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है? दरअसल पिछले कुछ चुनावों का आकलन करें तो जद(यू) के 12 फीसदी तय वोट हैं और जब वह राजद के साथ होता है तो उसे मुस्लिम-यादव के करीब पांच फीसदी वोट मिल जाते हैं और जब वह भाजपा के साथ होते हैं तो ओबीसी और गरीब सवर्णों के पांच फीसदी वोट मिल जाते हैं। फिर भी, आंकड़ों से इतर हकीकत यह है कि मोदी की अगुआई में भाजपा की हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की सियासत ने मुस्लिमों को चुनावी राजनीति में हाशिये पर ढकेल दिया है, यह सिर्फ देश की सेकुलर सियासत ही नहीं, बल्कि देश के सेकुलर ढांचे के लिए भी बड़ा धक्का है। इस कदम से नीतीश ने भाजपा को अपना कर्जदार भले बना दिया है, लेकिन वह आज खुद की छाया बनकर रह गए हैं।
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