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साहित्य-कला-संस्कृति

निर्मल वर्मा की जयंती पर विशेष : जिनकी कलम गढ़ती थी कहानियों का निर्मल संसार

अरुण पांडेय
अरुण पांडेय
Published: April 3, 2025 7:17 PM
Last updated: April 18, 2025 10:07 PM
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“सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागांव के अनेक गांव उजाड़ दिए जाएंगे, तब से न जाने कैसे, आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़ेगा, तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे? “

खबर में खास
रचनाओं जितना ही रोचक जीवनसाहित्यिक योगदान और सम्मान

यह लाइनें हिस्सा हैं उस कहानी की, जो सिंगरौली की वि‍भीषिका बताती है, जिसका नाम है “जहां कोई वापसी नहीं”। इसे लिखा था हिंदी साहित्य के महान कलमकार निर्मल वर्मा जी ने। उनकी जयंती पर हम उन्हें उनकी कृतियों के माध्यम से याद कर रहे हैं।

3 अप्रैल 1929 को शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा ने अपनी संवेदनशील लेखनी से हिंदी कहानी और उपन्यास को एक नई दिशा दी। वे न केवल एक मूर्धन्य कथाकार थे, बल्कि एक कुशल पत्रकार भी थे, जिन्होंने अपने कार्यों से साहित्य और समाज को गहरे तक प्रभावित किया। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति और आधुनिकता का बोध उन्हें समकालीन लेखकों से अलग करता है।

निर्मल वर्मा को हिंदी साहित्य में “नई कहानी” आंदोलन का प्रमुख ध्वजवाहक माना जाता है। उनकी पहली कहानी संग्रह “परिंदे” ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई और इस संग्रह को नई कहानी आंदोलन का प्रतीक माना गया। उनकी अन्य कहानी संग्रह में “जलती झाड़ी”, “कौवे और काला पानी”, “बीच बहस में” और “पिछली गर्मियों में” शामिल हैं। उनके उपन्यासों में “वे दिन”, “लाल टीन की छत”, “एक चिथड़ा सुख”, “रात का रिपोर्टर” और “अंतिम अरण्य” बेहद चर्चित रहे।

ये रचनाएं मानव मन की जटिलताओं, अकेलेपन और जीवन के यथार्थ को गहराई से उकेरती हैं। इसके अलावा, उनके यात्रा वृत्तांत “चीड़ों पर चांदनी” और “धुंध से उठती धुन” ने लेखन विधा को नए आयाम दिए।

25 अक्टूबर 2005 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य में एक अमिट छाप छोड़ती हैं। उनकी लेखनी न केवल पाठकों को भावनात्मक गहराई तक ले जाती है, बल्कि साहित्य के विद्यार्थियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।

रचनाओं जितना ही रोचक जीवन

निर्मल वर्मा का जीवन भी उनकी रचनाओं जितना ही रोचक रहा। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम.ए. करने के बाद उन्होंने अध्यापन किया और फिर 1959 से 1972 तक यूरोप में प्रवास किया। इस दौरान वे प्राग में प्राच्य विद्या संस्थान से जुड़े और चेक साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया। लंदन में रहते हुए उन्होंने “टाइम्स ऑफ इंडिया” के लिए सांस्कृतिक रिपोर्टिंग भी की। उनकी कहानी “माया दर्पण” पर बनी फिल्म को 1973 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

साहित्यिक योगदान और सम्मान

निर्मल वर्मा को साहित्यिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1985 में “कौवे और काला पानी” के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1995 में मूर्तिदेवी पुरस्कार, और 1999 में देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार और 2002 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से भी उन्हें नवाजा गया। मृत्यु से पहले वे नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किए गए थे।

TAGGED:indian literatureNirmal Verma
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