राहुल गांधी ने अहमदाबाद में कांग्रेस पार्टी के नेताओं की पार्टी और विचारधारा के प्रति वफादारी को लेकर जो सवाल उठाए हैं, दरअसल पूरे देश में पार्टी का यही हाल है। बेशक कांग्रेस अपने कड़े आंतरिक अनुशासन और विचारधारा की कट्टरता के लिए नहीं जानी जाती है, लेकिन हाल के बरसों, में खासतौर से नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा के उभार के बाद से कांग्रेस का आंतरिक पतन देखने लायक है। नेता पार्टी के आम कार्यकर्ताओं से दूर हो गए हैं। राहुल गांधी ने शिनाख्त की है कि कांग्रेस रेस वाले घोड़ों को बारात में भेज देती है और बारात वालों को रेस में! उनका यह भी कहना है कि पार्टी में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो जनता से कटे हुए हैं और भीतर से भाजपा से मिले हुए हैं। यदि पिछले तीन लोकसभा चुनावों और हाल के कई विधानसभा चुनावों को देखा जाए, तो कांग्रेस की हार में राहुल की इस थिसिस को पढ़ा जा सकता है। कांग्रेस को दशकों से जमे-जमाए नेताओं ने ही खोखला कर दिया है, जबकि जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता पार्टी की लड़ाई लड़ रहे हैं। सवाल यही है कि क्या राहुल अपनी दादी इंदिरा की तरह पार्टी के भीतर कोई कठोर निर्णय लागू करवा पाएंगे, फिर चाहे जंग खाए नेताओं को किनारे ही क्यों न लगाना पड़े? ध्यान रहें गेंद उन्हीं के पाले में है।
रेस और बारात के घोड़े
