बस्तर इन दिनों गरज रहा है। माओवादियों के खिलाफ देश के सुरक्षा बलों ने आक्रामक और व्यवस्थित सैन्य अभियान छेड़ रखा है। देश के गृह मंत्री अमित शाह का ऐलान है कि मार्च 2026 तक देश नक्सल यानि माओवाद से मुक्त हो जाएगा। माओवाद के जन्म से ही देश का एक बड़ा तबका यह मानता रहा है कि यह एक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक प्रश्न है और इसे केवल बंदूक के सहारे हल नहीं किया जा सकता। जिन इलाकों में माओवादी मौजूद हैं,मजबूत हैं वो देश के सबसे वंचित नागरिकों के घर हैं और विकास की दौड़ में सबसे पिछड़े इलाके हैं। यहां विकास की अल्प कोशिशें ही हुईं और जितनी भी कोशिशें हुई हैं, उससे ज्यादा इन इलाकों का दोहन हुआ है। संविधान किसी भी तरह कि हिंसा की इजाजत नहीं देता। वहीं बंदूक का जवाब बंदूक से देने की राज्य को न केवल अनुमति है, बल्कि इसके लिए उसके पास संवैधानिक कवच भी है। अभी बस्तर में यह हो रहा है। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने तो इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित किया था। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार इस ‘खतरे’ को समूल नष्ट करने के ऐलान के साथ सीधी सशस्त्र कार्रवाइयां कर रही है। माओवादियों को यह समझना होगा कि आधुनिक लोकतंत्र में हिंसा के रास्ते जनलामबंदी या जनसंघर्ष का स्थान नहीं है। विचारधारा की लड़ाई को विचारों के रास्ते ही लड़ना होगा। सरकारों की जिम्मेदारी भी सफाये जैसी कार्रवाइयों तक सिमट कर नहीं रह जाती, बल्कि उसे जनाकांक्षाओं का ध्यान रखना होगा और लोकतांत्रिक जवाबदेहियों को भी निभाना होगा।