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लेंस रिपोर्ट

उमा भारती…और ‘फुफकार’ की कथा

राजेश चतुर्वेदी
राजेश चतुर्वेदी
Byराजेश चतुर्वेदी
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Published: December 5, 2025 7:43 PM
Last updated: December 5, 2025 8:55 PM
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मैंने यह कथा कहीं पढ़ी थी…! एक दिन भगवान शंकर के गले में लिपटे हुए नाग देवता ने विनम्रता से कहा, “प्रभु! सदा आपके गले में लिपटे रहने से मेरा स्वभाव शिथिल हो गया है। मैं थोड़ा बाहर जाना चाहता हूँ… स्वतंत्र होकर घूमना चाहता हूँ, शिकार करना चाहता हूँ, जीवन की अनुभूति लेना चाहता हूँ।”

भोलेनाथ मुस्कराए। उन्हें नाग की इच्छा पर तरस आ गया। उन्होंने कहा— “जाओ नागराज, घूमो, पर ध्यान रहे, अपनी मर्यादा न भूलना। जिस शक्ति के साथ तुम जा रहे, वही शक्ति यदि असंतुलित हो जाए तो विनाश भी कर सकती है।” नाग देवता ने प्रणाम किया और पृथ्वी पर उतर आए। वह एक छोटे से गाँव के पास एक विशाल पेड़ की खो में रहने लगे।

शुरुआत में वह केवल छोटे-मोटे जानवरों का शिकार करते, परंतु धीरे-धीरे उनका स्वभाव उग्र होने लगा। वह गाँव के राहगीरों को देखकर फुफकारने लगे, कभी बच्चों को डराते, कभी किसी का पीछा करने लगते। कई बार किसी पशु या व्यक्ति को डस भी लेते। धीरे-धीरे पूरे गाँव में भय फैल गया। लोग पेड़ के पास से गुजरने से कतराने लगे। गाँव के बुजुर्ग, स्त्रियाँ, बच्चे सब आतंक में थे। आख़िरकार, गाँव वालों ने भगवान शंकर की शरण ली।

उन्होंने तपस्या की और प्रार्थना की—“प्रभु, यह वही नाग है जो कभी आपका गहना था, आज हमारे लिए अभिशाप बन गया है। हमें इससे मुक्ति दिलाइए।” भगवान प्रकट हुए और नाग से बोले— “नागराज, तुमने अपनी सीमा लांघ दी। शक्ति का उपयोग रक्षा के लिए होता है, आतंक के लिए नहीं। अब वचन दो कि किसी को डसोगे नहीं, किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे।”

नाग ने सिर झुकाकर कहा— “जैसा आप कहें प्रभु।” और उसने वचन दे दिया। अब नाग देवता शांत रहने लगे। दिन बीतते गए। गाँव वालों ने देखा कि अब वह किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। धीरे-धीरे उनका भय समाप्त हो गया। अब बच्चे पेड़ के पास जाकर खेलते, उनकी पूँछ पकड़कर झूलते। कभी कोई डंडे से ठेल देता, कभी उनके ऊपर पत्थर फेंक देता। कुछ तो उनकी देह पर बैठकर खिलखिलाते।

महिलाएँ कपड़े सुखाने के लिए उनकी देह को रस्सी की तरह उपयोग करने लगीं। वह तिलमिला उठते, पर भगवान का आदेश याद कर चुप रहते। समय बीतता गया और उनकी स्थिति दयनीय हो गई। लोगों की नजर में उनका डर खत्म हो गया, साथ ही उनका सम्मान भी। एक दिन वह अत्यंत दुखी होकर महादेव के पास पहुँचे।

उनकी आँखों में आँसू थे, शरीर पर चोटों के निशान। वह बोले— “प्रभु! आपने मुझे काटने से रोका था, मैंने वचन निभाया। पर आज देखिए, मेरी दशा कितनी दयनीय हो गई है। लोग मुझे रस्सी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। मुझसे अब कोई डरता नहीं, कोई सम्मान नहीं देता।”

भोलेनाथ ने स्नेहपूर्वक उनकी ओर देखा और मंद मुस्कान के साथ बोले—“नागराज, मैंने तुम्हें काटने से मना किया था, पर फुफकारने से नहीं। तुम्हारा डर लोगों के मन में बना रहना चाहिए था। डसना तुम्हारा धर्म नहीं था, पर फुफकारना तुम्हारा स्वभाव था —वह भय नहीं, अनुशासन का प्रतीक था। लेकिन तुमने तो फुफकारना भी बंद कर दिया।”

नाग देवता ने सिर झुका लिया। उनको समझ आ गया कि आत्मसम्मान, स्वाभिमान और खुद के अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने नैसर्गिक गुणधर्म का प्रदर्शन आवश्यक है, अन्यथा ये दुनिया लहूलुहान कर देगी। जिंदा नहीं छोड़ेगी। लिहाजा फुफकारते रहो।

अब बात करते हैं राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की। सबसे पहले उमा भारती की, जिन्होंने शराब और गौ-हत्या के खिलाफ अपनी मुहिम को थोड़ा तेज़ करने के बहाने ही सही, मगर खुदको फिर से कुछ “सक्रिय” किया है। और, “सक्रिय” भी इस हद तक कि पिछले दिनों वे पार्टी के प्रदेश कार्यालय पहुंच गईं (शायद, दो दशक में दूसरी बार)।

सियासत की एक ऐसी जगह, जहां का रुख करने में वे अब तक “संकोच” करती रही हैं। क्यों? क्या इसलिए कि पार्टी ने उन पर कोई बंदिश लगा रखी थी? या अब भी लगा रखी है? अथवा उन्होंने स्वयं ही परहेज किया? इन सवालों की सच्चाई तो खुद उमा या पार्टी ही बता सकती है, मगर यह सच है कि लगभग 8 माह प्रदेश की सीएम रही इस तेज-तर्रार नेता ने बीजेपी से निकाले जाने और फिर वापस लौटने के बाद से अपने आपको “जज़्ब” करके रखा है। राजनीतिक मनोभावों पर “नियंत्रण” किया है। इतना कि, जो लोग उमा भारती को नजदीक से जानते-बूझते रहे हैं, वे भी उनकी ‘सहन शक्ति’ और ‘शांत चित्त प्रवृत्ति’ को देखकर हैरान हैं।

वर्ना, जो कुछ उनके साथ हुआ या परोक्ष रूप से अभी भी जारी है, किसी और के साथ हुआ होता तो, या तो वह अपना “राजनीतिक अवसान” स्वीकार कर घर बैठ जाता या फिर कोई और ठौर का इंतजाम करता। कल्पना करिए कि जो राज्य आपकी जन्म-कर्म भूमि है, जहां के आप मुख्यमंत्री रहे, कई बार सांसद-विधायक रहे, वहां से आपको टिकट नहीं दिया जाता। चुनाव नहीं लड़ाया जाता। कई चुनाव आते-जाते हैं, पर आपको पूछा नहीं जाता। आप स्टार प्रचारक नहीं बनाए जाते।

पूर्व मुख्यमंत्री के नाते संगठन की प्रदेश कार्यसमिति समेत किसी सूची में आपका नाम शामिल नहीं किया जाता। किसी भी नियुक्ति में आपकी सलाह नहीं ली जाती। कोई बड़ा नेता आए-जाए (पीएम-एचएम) आप पार्टी के किसी कार्यक्रम में नहीं जा पाते। किसी मंच पर दिखाई नहीं पड़ते। उल्टे चुनाव लड़ने आपको पड़ोस के राज्य भेज दिया जाता है।

विधानसभा और लोकसभा, दोनों का। मतलब, आप “शालिग्राम की बटुइयां” बना दिए जाते हैं। फिर अचानक आप चुनाव लड़ने से मना कर देते हैं। इसके बाद जब दो आम चुनावों में टिकट नहीं मिलता तो “मर्सी पिटीशन” की तरह अपनी “इच्छा” व्यक्त करने लगते हैं। एक प्रकार से अपनी लाचारी, विवशता, दीनता दिखाते हैं। लाचारी इसलिए, क्योंकि न तो कोई आपसे आपकी “इच्छा” पूछ रहा है और न ही किसी की जानने में रुचि है, मगर आपको खुद ही जाहिर करना पड़ रही है “इच्छा”।

उमा ने यही किया, जब कहा-“मेरी इच्छा झांसी से चुनाव लड़ने की है।” “पहले, सीधे ऐलान कर दिया कि ‘मैं झांसी से चुनाव लड़ूँगी’, मगर शायद फिर ध्यान आया कि ये अटल –आडवाणी वाली पार्टी नहीं है तो जोड़ना पड़ा- “अगर पार्टी ने मुझे मौका दिया तो।” ये शब्द दिखाते हैं कि स्वयं को “प्रासंगिक” बनाए रखने के लिए उन्हें किस हद तक अपनी नैसर्गिकता से संतुलन बैठाना पड़ रहा है या समझौता करना पड़ रहा है। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, 2023 में मध्यप्रदेश विधानसभा का चुनाव आ गया था।

सितंबर के महीने में उमा ने मीडिया में आकर साफ-साफ बताया था- “अभी मुझे 15-20 साल काम करना है। मुझे पोस्टर गर्ल नहीं बनना है कि पोस्टर दिखा दिया और वोट ले लिया। मुझे बहुत काम करना है और लंबा काम करना है। मैं बहुत छोटी हूं। मोदी जी से 10 साल छोटी हूं। अमित शाह से थोड़ी बड़ी हूं।”

यह सब उमा ने तब कहा था, जब पार्टी ने उन्हें जन आशीर्वाद यात्रा के लिए याद नहीं किया था। जबकि 2003 में दिग्विजय सिंह से सत्ता छीनने के लिए बीजेपी ने ‘डूंडा’ की इस भगवाधारी और ‘भावुक मन’ की साध्वी को ही चेहरा बनाया था। पीड़ा स्वाभाविक थी। लिहाजा, अपनी बात में उन्होंने यह भी जोड़ा था कि-“मैंने 2019 में गंगा के काम के लिए खुद पांच साल का ब्रेक मांगा था, लेकिन मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूँगी। कोई मुझे किनारे नहीं लगा सकता।”

बहरहाल, इस टिप्पणी को दो साल बीत चुके हैं। 2024 का चुनाव खाली चला गया। अब 2029 का चुनाव आना है। सो, उमा पूरी “सतर्कता’ के साथ सक्रिय हो रही हैं। गौ-संवर्द्धन और शराब को लेकर अपने अभियान को वे निजी बताती हैं। हाल ही में अपनी माँ के मायके से ससुराल तक की तीन दिन की यात्रा को भी उन्होंने व्यक्तिगत कार्यक्रम बताया था। राजनीति वैसे भी आख्यानों (नैरेटिव) का खेल है।

उन्हें मालूम है कि फैसला बीजेपी के मौजूदा निज़ाम, यानी मोदी-शाह को ही करना है, लिहाजा बात-बात पर पूरी सावधानी के साथ आगे बढ़ रही हैं। लोगों को खुद ही बताती हैं कि दिल्ली में बैठे “ऊपर वाले” उनका कितना सम्मान और चिंता करते हैं। कुलमिलाकर, लक्ष्य, मुख्यधारा में वापसी है। लिहाजा, मीडिया से बात कर रही हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही हैं, इंटरव्यू दे रही हैं। सोशल मीडिया में उनकी उपस्थिति तेजी से बढ़ी है।

उनके नए पुराने भाषणों और मीडिया को दिए इंटरव्यू की छोटी-छोटी वीडियो क्लिप्स विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रसारित की जा रही हैं। रीलें पोस्ट की जा रही हैं। उमा के काफिले वाली ऐसी ही एक रील में बज रहा था-“जंगल में सन्नाटा छाए, जब शेर दहाड़ लगावत है। कुकुर-बिलाव के जैसे दुश्मन सामने पूंछ हिलावत हैं। अभी तलक हम शांत थे, अब फिर से शोर मचाएंगे। हवा में उड़ने वालों को उनकी औकात दिखाएंगे।”

पिछले दिनों एक कार्यक्रम में उमा ने कहा था, “कोई जगह है तुम्हारी, कोई इज्जत है तुम्हारी? बोल-बोलके थक जाते हैं, अकेले में धमका-धमकाके। कुछ भी नहीं बिगड़ता। कुछ भी नहीं बात बनती है। संख्या ज्यादा होने से क्या होता है? थोड़ा फन उठेगा, फुफकार भरोगे तब न काम चलेगा। और इसलिए, मुझे ऐसे लोग अच्छे लगते हैं, जो फुफकार भर देते हैं। फुफकार भरनी पड़ेगी।”

शिवराज की चहलकदमी… और माथे के बल

दूसरे हैं शिवराज सिंह चौहान। केंद्र में कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री। देश भर का जिम्मा है। पर अकेला सोशल मीडिया बता देता है कि वे कहाँ ज़्यादा सक्रिय हैं। उनकी रीलें और क्लिप्स भी छाई रहती हैं। कभी वे अपने खेत में उगने वाली फसलों के साथ दिखाई दे जाते हैं तो कभी अपने परिवार के साथ सैर-सपाटा करते हुए। तो कभी भोपाल में गणेश जी को अपने घर लाते हुए तो कभी शादी समारोह में। कभी कन्याओं को भोजन कराते हुए तो कभी चाय की चुसकियों के साथ। एकाध बार पंजाब में वहां की लस्सी के साथ भी।

मोदी-शाह ने भले ही दिल्ली बुला लिया हो, मगर शिवराज दूरी को “कुबूल” नहीं कर पा रहे। उन्होंने कई बार कहा भी है- “मेरी आत्मा मध्यप्रदेश में बसती है। मन मध्यप्रदेश में ही बसा है। मेरे लिए दिल्ली दूर।” 2018 में चुनाव हारने के बाद तो उन्होंने कहा था-“मैं केंद्र में नहीं जाऊंगा। मध्यप्रदेश में ही जिऊंगा और मध्यप्रदेश में ही मरूंगा।”

मगर समय बलवान होता है। उस पर किसी का जोर नहीं चलता। सफल भी वही कहलाता है और मुरादें भी उसी की पूरी होती हैं, जो समय की ताक़त को पहचानकर उसके हिसाब से चलता है। शिवराज ने यही किया। “समय” को पहचानकर केंद्र में चले तो गए, पर मध्यप्रदेश में “चहलकदमी” बंद नहीं कर रहे हैं। उनका खूंटा गड़ा हुआ है। अगले हफ्ते, डॉ. मोहन यादव की सरकार को दो साल होने वाले हैं, मगर सत्ता के गलियारों की “बतरस” में चौहान ने खुद को ज़िंदा रखा है। आभासी ही सही पर अपने आपको एक “फैक्टर” बनाकर रखा है।

वल्लभ भवन की तमाम मंजिलें भी इसकी गवाही देती सुनाई पड़ती हैं। उमा अगर पीएम मोदी से 10 साल छोटी हैं तो शिवराज भी करीब 9 वर्ष छोटे हैं। जाहिर है, उनको भी लंबी राजनीति करना है। इसलिए राजनीतिक तौर पर उन्हें “किल” होना शायद मंज़ूर नहीं, और इसीलिए सोशल मीडिया के बहाने ही सही वे आम लोगों को दिखते रहते हैं। बेटी–बेटा करते रहते हैं।

सीहोर में आदिवासियों को नोटिस मिले तो उन्हें कहना पड़ा, “ज़िंदगी चली जाए, परवाह नहीं, मगर आदिवासियों के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा।” दरअसल, उन्हें मालूम है कि लोगों की नज़रों से दूर गए तो वे राजनीतिक तौर पर “अप्रासंगिक” हो जाएंगे। सो, “फुफकार” पूरी है। हर खेत की चिंता है। चूंकि मध्यप्रदेश में आत्मा बसती है, लिहाजा रह-रहकर पुरानी बातें भी याद आती हैं। वो जलवा-जलाल सब, जो किसी भी सीएम का हुआ करता है।

बीते दिनों अपने समाज के एक कार्यक्रम में उनसे रहा नहीं गया। यह स्पष्ट किया, बल्कि खुलकर बताया कि राजनीति में धैर्य और संयम रखना पड़ता है। 2023 के चुनाव नतीजों का जिक्र करते हुए कहा,“जब बंपर मेजारिटी मिली। हरेक को लगता था कि स्वाभाविक रूप से तय हैं सब चीजें। लेकिन, वो मेरी परीक्षा की घड़ी थी।

तय हुआ कि मुख्यमंत्री, मोहन जी होंगे। मेरे माथे पर बल नहीं पड़ा। अलग-अलग रिएक्शन हो सकते थे। गुस्सा आ सकती थी। मैंने इतनी मेहनत करी। कौन को वोट दिए। लेकिन दिल ने कहा, शिवराज ये तेरी परीक्षा की घड़ी है। माथे पर सिकन मत आने देना। आज तू कसौटी पर कसा जा रहा है। और मैंने नाम प्रस्तावित किया।

”बहरहाल, शिवराज की चहलकदमी जारी है। परिवार चूंकि भोपाल से दिल्ली शिफ्ट नहीं हुआ है, इसलिए “चहलकदमी” का ठोस कारण भी है उनके पास। अब, इससे औरों को दिक्कत हो तो हो, चौहान अपने परिवार (मध्यप्रदेश) की चिंता करना तो छोड़ नहीं देंगे…!

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