राज्यों के पुलिस प्रमुखों के महत्त्वपूर्ण 60 वें सम्मेलन के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से बेहतर संभवतः कोई और जगह नहीं हो सकती थी, जब नक्सलवाद या माओवाद दम तोड़ता दिख रहा है। इसका रणनीतिक महत्व भी है और राजनीतिक निहितार्थ भी।
28 नवंबर से 30 नवंबर के बीच हुए इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, सहित सुरक्षा एजेंसियों और राज्यों के पुलिस प्रमुखों ने हिस्सा लिया और देश के सुरक्षा माहौल पर न केवल सघन चर्चा की है, बल्कि देश में भविष्य के सुरक्षा परिदृश्य का रोडमैप भी तैयार कर लिया लगता है।
मोदी सरकार का खासा जोर आजादी के शताब्दी वर्ष यानी 2047 और राष्ट्रीय सुरक्षा पर है। इस सम्मेलन में भी इसी पर जोर था। सरकार 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाना चाहती है, लेकिन जिस तरह की सामाजिक-आर्थिक विसंगतियां आज भी मौजूद हैं, उस पर चर्चा अलग से की जा सकती है।
लेकिन सरकार पुलिसिंग को लेकर जिस तरह से आगे बढ़ना चाहती है, उसे लेकर कुछ सवाल भी उठते हैं। बेशक, पुलिस व्यवस्था के सामने साइबर और एआई जनित नए तरह के अपराधों से निपटने की चुनौतियां हैं, उस पर गंभीर बात होनी ही चाहिए। इसी तरह से नए तरह के आर्थिक अपराध भी चुनौती हैं, जिनसे संगठित और एकीकृत तरीके से निपटने की व्यवस्था की जरूरत है। इस सम्मेलन में उभरती चुनौतियों पर खासी चर्चा हुई है, जो स्वाभाविक ही है।
दरअसल इस सम्मेलन की कार्यसूची में एक विषय ने ध्यान खींचा है और परेशान भी कर दिया है। यह विषय है, जन आंदोलनों को रोकने के लिए इकोसिस्टम एप्रोच की जरूरत! सम्मेलन में जन आंदोलनों से निपटने के लिए इंटीग्रेटेड सिस्टम की जरूरत पर जोर दिया गया है।
जन आंदोलनों को लेकर मौजूदा सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं है, बावजूद इसके कि खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनके अनेक सहयोगी जेपी के नेतृत्व में हुए जनांदोलन से जुड़े थे। इसके उलट तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को लेकर हो रहे किसान आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने आंदोलनकारियों को आंदोलन जीवी कहकर मजाक उड़ाया था।
जन आंदोलन इस देश की लोकतांत्रिक ताकत हैं और इनके दम पर आजादी के बाद पिछले आठ दशकों में देश के नागरिकों ने अपने हक की वाजिब लड़ाइयां जीती हैं। वास्तव में वंचितों और उपेक्षित तबकों के पास यही एक तरीका है, जिसके जरिये वे अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं।
लोकतंत्र में जन आंदोलनों से निपटने का सबसे कारगर हथियार संवाद हो सकता है, पुलिसिया नजरिया नहीं। दुनिया भर में जन आंदोलनों ने सरकारों को जनहित के फैसले लेने के लिए विवश किया है। गांधी के देश भारत में जन आंदोलनों का महत्व बताने की वैसे भी जरूरत नहीं है।

